Atmadharma magazine - Ank 281
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : फागण : २४९३
आबुनगरीमां गुरुदेव समजावे छे–
मनुष्यजीवननी महत्ता
ता. २७–२–६७ ना रोज आबुशहेरना टाउनहोलमां
भाई, आवो मनुष्यदेह मळ्‌यो छे, ज्ञानीओ आ मनुष्यभवने बीजा बधा करतां
उत्तम कहे छे. –तेने उत्तम कहेवानुं कारण ए छे के धर्मनुं साधन मुख्यपणे आ
मनुष्यदेहमां ज थाय छे. जो के मनुष्योमां कांई बधाय मनुष्यो धर्मनुं साधन करता
नथी, पण जेओ विवेक–बुद्धिवाळो छे, सत्य–असत्यनो विवेक करीने समजे छे, ने
देहादिथी भिन्न चैतन्य तत्त्वने जाणे छे ते ज मनुष्यो धर्मने साधे छे. बाकी तो मनुष्यनुं
शरीर अनंतवार मळी चूक्युं, पर देहथी भिन्न आत्माने न जाण्यो तो तेने खरेखर
ज्ञानीओ ‘मनुष्य’ नथी कहेता, ए तो
मनुष्यरूपेण मृगाः चरन्ति।’ मन्यते ते
मनुष्याः एटले के ज्ञानानंदस्वरूप सिद्धसमान आत्मा शुं चीज छे तेने जे माने–जाणे–
अनुभवे ते साचो मानव छे.’ तेणे मनुष्यपणाने सफळ कर्युं छे.
आचार्यदेव ऊंघता जीवोने जगाडीने कहे छे के अरे जीवो! आत्मा तो सुखनुं
धाम छे; आ देह के राग–तेमां तमारुं पद खरेखर नथी, तमारुं पद तो चैतन्यमय छे,
आनंदमय छे; तारा आवा पदनुं मनन तो कर. आ मनुष्यपणुं पामीने तारा
चैतन्यपदमां आवी जा, बहारमां सुख मानीने बहारमां भटके छे, तेने बदले अंतरमां
तारा चैतन्यपदमां आवी जा. निजपदने भूलीने तुं पर पदने पोतानुं मानी रह्यो छे ने
तेमां सूतो छे, तेने बदले हे जीव! तुं आ स्थिर चैतन्यपद तरफ आव! तुं जाग, ने
तारा शुद्ध चैतन्यपदने संभाळ. –तारुं ए पद महा आनंदमय छे. आवा तारा स्वघरमां
तुं कदी आव्यो नथी. माटे हवे तो तेने ओळखीने निजपदरूपी स्वघरमां आव.
आवा निजपदने संभाळीने तेनी श्रद्धा–ज्ञान–रमणता वडे धर्मनी साधना
करवी–तेमां ज आ मनुष्यभवनी महत्ता छे. अने मनुष्यपणुं पामीने पण जो आत्मानी
दरकार न करी, धर्मनी साधना न करी. तो ए मनुष्यभवनी शी किंमत! पशुमां ने एमां
शो फेर? माटे ज्ञानीओ कहे छे के हे भाई! आवुं मोंघुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं छे तो तेमां हवे
आत्मानुं स्वरूप विचारजे, ने आत्मानुं कल्याण केम थाय–तेवो उद्यम करजे. –एमां ज
मनुष्यपणानी सफळता छे.