: २ : आत्मधर्म : फागण : २४९३
छुं.....स्वरूपनी रुचिना रंगथी मोक्षने साधवा जाग्यो तेमां हवे भंग
पडे नहि, एवुं अफर मांगलिक छे. साधक कहे छे के–
धर्म जिनेश्वर गाउं रंगशुं!
भंग म पडशो हो प्रीत जिनेश्वर...
बीजो मनमंदिर आणुं नहीं,
ए अम कूळवट रीत जिनेश्वर...
धर्म एटले पंदरमा धर्मनाथ भगवान, अथवा धर्म एटले
आत्मानो स्वभाव, तेने रंगथी साधवा नीकळ्यो तेमां हे नाथ! हवे
भंग नहीं पडवा दउं. जे शुद्धात्मानी रुचि करीने ज्ञानमंदिरमां
बिराजमान कर्या, तेमां हवे बीजा कोई रागादि परभावने वच्चे
नहीं आववा दउं...ए मारी टेक छे. अनंता तीर्थंकरो आ मार्गे मोक्ष
पाम्यां. हुं पण तेमना कूळनो छुं ने अमारा कूळनी टेक छे के
शुद्धात्मानी रुचि सिवाय बीजानी रुचि न थवा दईए. आवी टेकथी
हे नाथ! अनंत सिद्धभगवंतो जे रस्ते गया ते रस्ते हुं पण हाल्यो
आवुं छुं.
हे सर्वज्ञ अने सिद्धभगवंतो! आप मारा ज्ञानमां समाओ!
एटले के राग जरा पण न रहो–एम रागथी तद्न भिन्न
चैतन्यनी रुचि अने प्रतीत वडे आत्मामां सर्वज्ञनी प्रतिष्ठा करुं छुं
ने हे श्रोताओ! तमे पण तमारा ज्ञानमां सर्वज्ञने स्थापीने आवा
आत्मानी रुचि करो...प्रतीत करो, आ रीते आत्मामां सर्वज्ञ–
सिद्धोने ओळखीने तेमनो आदर कर्यो –ते अपूर्व मंगळ छे.
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