Atmadharma magazine - Ank 283
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४९३ आत्मधर्म : १७ :
कर्यो ने अतिशय हर्ष व्यक्त करतां पूछयुं के हे महादानपति! कहो तो खरा के
भगवानना मननी आ वात तमे केवी रीते जाणी? आ भरतक्षेत्रमां पहेलां कदी नहि
देखेली एवी आ दाननी विधिने तमे न बतावी होत तो कोण जाणी शकत? हे कुरुराज!
आज तमे अमारा माटे भगवानसमान पूज्य बन्या छो. तमे दानतीर्थना प्रवर्तक छो,
महापुण्यवान छो, आ दाननी बधी वात अमने कहो.
श्रेयांसकुमार कहे छे: हे राजन्! आ बधु में भगवान साथेना पूर्वभवना
स्मरणथी जाण्युं छे. जेम रोग दूर करनारी उत्तम औषधि पामीने रोगी मनुष्य प्रसन्न
थाय, ने तरस्यो मानवी पाणीथी भरेलुं सरोवर देखीने प्रसन्न थाय, तेम भगवानना
उत्कृष्ट रूपने देखीने हुं अतिशय प्रसन्न थयो, ने ते कारणे मने जातिस्मरण थयुं, एटले
में भगवाननो अभिप्राय जाणी लीधो. पूर्वे आठमा भवमां ज्यारे भगवान वज्रजंघ
राजा हता त्यारे विदेहक्षेत्रनी पुंडरीकिणी नगरीमां हुं तेमनी श्रीमती नामनी राणी हती,
अने त्यारे भगवाननी साथे में पण बे चारणमुनिओने भक्तिथी आहारदान दीधुं हतुं;
तेना संस्कार याद आवतां आजे पण में ए ज विधिथी भगवानने आहारदान दीधुं.
विशुद्धता सहित मुनिवरोने दान देवानो प्रसंग महान भाग्यथी प्राप्त थाय छे.
दाननुं स्वरूप समजावतां श्रेयांसकुमार भरतराजाने कहे छे के–स्व–परना
उपकारने माटे मन–वचन–कायानी शुद्धिपूर्वक पोतानी वस्तु योग्य पात्रने आपवी तेने
दान कहे छे. श्रद्धा वगेरे गुणोसहित पुरुष ते दाता छे; आहार, औषध, शास्त्र तथा
अभय ए चार वस्तुओ देय (दानमां देवायोग्य) छे. रागादि दोषोथी दूर ने
सम्यक्त्वादि गुणसहित पुरुष ते पात्र छे. तेमां जे मिथ्याद्रष्टि छे पण व्रतशीलसहित छे
ते जघन्यपात्र छे; अव्रती सम्यग्द्रष्टि मध्यम पात्र छे; अने व्रत–शील–सहित सम्यग्द्रष्टि
ते उत्तम पात्र छे. व्रतशीलथी रहित एवा मिथ्याद्रष्टि ते पात्र नथी पण अपात्र छे.
मोक्षना साधक एवा उत्तम गुणवान मुनिराजने देवामां आवेलुं आहारदान
अपुनर्भवनुं (मोक्षनुं) कारण थाय छे. अहीं जे दिव्य पंचाश्चर्य (रत्नवृष्टि वगेरे) थया
ते दानना ज महिमाने प्रगट करे छे. हवे भगवान ऋषभदेवना तीर्थमां मुनि वगेरे
पात्र सर्वत्र फेलाई जशे–ठेर ठेर मुनिओ विचरशे; माटे हे राजर्षि भरत! आपणे सौए
भक्तिपूर्वक उत्तमदान देवुं जोईए.
आ रीते दाननो उपदेश आपीने श्रेयकुमारे दानतीर्थनुं प्रवर्तन कर्युं. श्रेयांसना
श्रेयकारी वचनो सांभळीने भरतराजाने घणी प्रीति थई, ने अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक राजा
सोमप्रभनुं तथा श्रेयांसकुमारनुं सन्मान कर्युं. पछी गुरुदेव–ऋषभनाथना गुणोनुं
चिन्तन करता करता ते अयोध्यापुरी गया.