Atmadharma magazine - Ank 283
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९३
भारतना पाटनगरमां जिनवाणीनी अमृत वर्षा
जैनसमाजना नेता अने भारतना अजोड
अध्यात्म संत पू. श्रीकानजीस्वामी ता. १७–१८–१९
एप्रिलना त्रण दिवस दिल्ही शहेरमां पधार्या ने
दिल्हीनी जनताने जे अध्यात्मसन्देश संभळाव्यो तेनो
थोडोक सार अहीं आप्यो छे.
ब्र. हरिलाल जैन
आत्मानो एकत्व–विभक्त स्वभाव जीवे कदी जाण्यो नथी. परथी भिन्न,
देहथी भिन्न ने रागादि विकारथी पण विभक्त, अने पोताना ज्ञानानंद स्वभाव
साथे एकमेक एवा आत्मस्वभावने जाण्या वगर जीव संसारनी चार गतिमां
रखडी रह्यो छे. पुण्य करीने स्वर्गादिमां ने पाप करीने नरकादिमां–एम चार
गतिना भवचक्रमां भ्रमण करी रह्यो छे. ए भवनो आंटो केम मटे? तेनी आ वात
छे. श्रीमद् राजचंद्रजी १६ वर्षनी नानी वयमां भवचक्रनो आंटो मटाडवानी वात
करतां लखे छे के–
बहु पुण्य केरा पुंजथी शुभदेह मानवनो मळ्‌यो,
तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नही एके टळ्‌यो.
आत्माना भान वगर पुण्य करे तेथी मनुष्यादिनो भव मळे पण तेनाथी
भवचक्र मटे नहि. भवचक्रनो आंटो मटाडवानो उपाय शुभ–अशुभ रागथी पार छे;
आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप शाश्वत वस्तु छे. आ देहना रजकण जुदी चीज छे, तेनी क्रिया
आत्मानी नथी. अरे, रागनी क्रिया पण खरेखर आत्मानी नथी. ज्ञानानंदस्वरूप
आत्मानो जेने अनुभव नथी ते ज रागनी क्रियानो कर्ता थाय छे. ज्ञानने भूलीने
क्रोधादि परभावनो जे कर्ता थयो एटले के परभाव साथे एकत्वबुद्धिरूप प्रेम कर्यो
तेने आत्माना स्वभाव उपर क्रोध छे, अरुचि छे; तेने शास्त्रो मिथ्यात्व कहे छे ने ते
ज संसारनुं मूळ छे.
प्रभो! तुं तो ज्ञान छो; तारा ज्ञाननी जे चीज नथी एवी परचीजनुं कर्तृत्व तुं
तारामां माने छे ते बडी भूल छे. ते मिथ्यात्वने शास्त्रोए महापाप कह्युं छे.