Atmadharma magazine - Ank 283
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४९३ आत्मधर्म : २३ :
तेनो नाश थईने आत्मामां सम्यग्दर्शननी उत्पत्ति केम थाय? एटले के अपूर्व धर्मनी
शरूआत केम थाय–ते वात अहीं समजावे छे. तारो आत्मा अनंत आनंदनी खाण छे,
तेमां एकवार खोज तो कर.–ज्यां आनंद भर्यो छे त्यां शोधवाथी नीकळशे. रागमां के
देहमां कांई तारो आनंद भर्यो नथी, तेमां शोधवाथी तने आनंद नहीं मळे; तेना
कर्तृत्वमां अटकतां तने तारा आत्मानी शांति नहीं मळे. अंर्तद्रष्टिथी जोतां धर्मीजीव
पोताना ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने विकारथी जुदो देखे छे, एटले ते ज्ञानने आदरे छे ने
विकारने आदरतो नथी. आवी अंर्तद्रष्टि करतां अनंतकाळनुं अज्ञान एक क्षणमां टळी
जाय छे–
कोटि वर्षनुं स्वप्न पण जागृत थतां शमाय,
तेम विभाव अनादिनो ज्ञान थतां दूर थाय.
अनंतकाळनुं अज्ञान दूर करवा माटे अनंतकाळ नथी लागतो पण ज्ञान थतांवेंत
ज ते टळी जाय छे. आत्माना स्वरूपनुं ज्ञान थतां विकारनुं कर्तृत्व रहेतुं नथी. आवुं
यथार्थ ज्ञान अने श्रद्धान करवुं ते मोक्षमार्गनुं अपूर्व रत्न छे. जेम रत्ननी किंमत झवेरी
जाणे छे तेम चैतन्यरत्न केवुं छे तेनी किंमत धर्मात्मा–सम्यग्द्रष्टि झवेरी ज जाणे छे.
सम्यग्दर्शन थतां जे ज्ञान प्रगट्युं ते शांतरसमय छे, ते आकुळता वगरनुं छे. आवा
भेदज्ञानवडे ज त्रणेकाळ जीवो मुक्ति पामे छे. भेदज्ञान वगर कदी कोई जीव मुक्ति
पामतो नथी.
आत्मामां सर्वज्ञत्वशक्ति छे. तेनुं भान करीने तेमां लीनतावडे जेमणे
केवळज्ञानज्योति प्रगट करी एवा सर्वज्ञ परमात्मानी वाणी झीलीने कुंदकुंदाचार्यदेवे आ
समयसार रच्युं छे. पोताना स्वानुभवथी जे शुद्धात्मा जाण्यो ते समयसारमां दर्शाव्यो
छे.
आतमअनुभवरसकथा प्याला पिया न जाय;
मतवाला तो ढही पडे, निमता रहे पचाय.
आत्माना अनुभवनो आनंदरस कोई अलौकिक छे; ते अनुभवरसने
ममतारहित एवा ज्ञानीओ ज पचावे छे. परनी ममतामां रोकायेला मतवाला जीवो
चैतन्यना अनुभवरसने पचावी शकता नथी. परनी ममता छोडीने परथी भिन्न एवा
चैतन्यतत्त्वने प्रतीतमां लईने धर्मीजीव चैतन्यना आनंदरसने अनुभवे छे. सिद्धदशा
आत्मानी राजधानी छे, तेमां बिराजमान सिद्धभगवंतो हमारा शिरछत्र छे.