: २८ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९३
(६३) अहा, आवा चैतन्यस्वरूपनी वार्ता सांभळतां आत्मार्थीने चित्तनी
प्रसन्नता थाय छे. चैतन्य प्रत्ये जेने प्रीति जागी ते तेने साधीने
अल्पकाळमां जरूर मोक्ष पामे छे.
(६४) स्वघरमां पहोंचवानी आ वात छे. अनादिथी निजघरने भूलीने
परभावमां जीव लीन थई रह्यो छे. राग अने चैतन्य बंनेना
लक्षणद्वारा तेमनी भिन्नता जाणतां जीवने पर भावमां लीनता रहेती
नथी; ने चैतन्यमय स्वभावमां लीनतारूप प्रवृत्ति थाय छे.–एनुं नाम
धर्म छे.
(६प) रागने खबर नथी के ‘हुं राग छुं.’ ज्ञान ज तेने जाणे छे के ‘आ राग छे,
ने हुं ज्ञान छुं.’ आवा स्व–पर प्रकाशक ज्ञानपणे आत्माने जाणवो ने
अनुभववो ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे.
(६६) रागने जाणतां ‘राग ते ज हुं’ एवी बुद्धि ते अज्ञान छे; राग मने धर्मनुं
साधन थशे एवी जेनी बुद्धि छे ते पण रागने ज ज्ञान माने छे. ज्ञानना
निराकुळ आनंदस्वादनी तेने खबर नथी.
(६७) रागथी भिन्न ज्ञानने जे जाणे ते रागने मोक्षनुं साधन माने नहि, तेमज
रागने मोक्षनुं साधन मनावनार जीवोनी वात ते माने नहीं. रागने
मोक्षनुं साधन पण माने अने भेदज्ञान पण होय एम बने नहि.
(६८) आत्माना अनुभव माटे पहेलां शुं करवुं? के जेवो शुद्धस्वभाव छे तेवो
यथार्थपणे निर्णयमां लईने लक्षगत करवो जोईए, पछी विकल्प तूटीने
साक्षात् अनुभव थाय छे.
(६९) शरूमां राग–विकल्प होवा छतां ज्ञानना बळे अंदरमां निर्णय कर के मारो
आत्मा ज्ञानस्वभावरूप छे, ने स्वसंवेदनथी मने प्रत्यक्ष थई शके छे.–
आवा निर्णयना जोरे निर्विकल्प अनुभव थशे. निर्णय वगर धर्मनुं
पगलुंय भराशे नहीं.
(७०) कोई कहे के अमने नथी समजातुं.–तो भाई! ‘नथी समजातुं’ एवो
तारो ऊंधो भाव तो अनादिनो छे, हवे अंतर्मुख समजणना
प्रयत्नवडे ते भाव पलटावी नांख. सवळा भाव वडे आत्मा समजी
शकाय तेवो छे.