Atmadharma magazine - Ank 283
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : वैशाख : २४९३
अपार सुखथी
भरेलो आत्मवैभव
(“आत्मवैभव” पुस्तकनुं एक प्रकरण)
– * –
सुखशक्तिनी प्रतीत करतां तेनुं फळ पर्यायमां आवे छे
स्वानुभूतिमां जे सुखनुं वेदन थयुं ते उपरथी धर्मी जीव जाणे छे के
मारो आखो आत्मा आवा पूर्ण सुखस्वभावथी भरेलो छे...अहो!
आवो सुखस्वभाव सांभळे, तेना विचार–मनन करे ने तेनो महिमा
लावी अंदर उतरे तो त्यां जगतनी कोई चिन्ता के आकुळता क््यां
छे? सुखमां बीजी चिन्ता केवी?–सर्वज्ञना महा आनंदनी तो शी
वात? साधकनो आनंद पण अपूर्व अतीन्द्रिय छे.–आवो सुखवैभव
दरेक आत्मामां भर्यो छे; ते प्रगट करवानो उपाय सम्यग्दर्शन छे.
– * –
अनेकान्तस्वरूप आत्मामां सुख नामनी एक शक्ति छे; तेनुं लक्षण शुं?–के
अनाकुळता तेनुं लक्षण छे. आकुळता ते दुःख छे, तेना अभावरूप निराकुळ शान्ति ते
सुख छे. अनाकुळताथी भरेलो भगवान आत्मा तेना सर्वप्रदेशोमां सुख भरेलुं छे.
आवा निजसुखने परमां शोधे तो आकुळता ने दुःख थाय एटले संसारभ्रमण थाय. हे
जीव! सुख अंतरमां छे, ते बहारमां शोध्ये मळे तेम नथी. बहारमां तो नथी ने
विकल्पमांय सुख नथी. विकल्पमां सुखने शोधनारो अर्थात् रागने सुखनुं साधन
माननारो परमार्थे बाह्यविषयोमां ज सुख माने छे. पोताना सुखस्वभावने ते जाणतो
नथी.
भाई, सुख तो तारो स्वभाव; तुं पोते ज सुखस्वभावथी भरेलो, तो तारा
सुखने बाह्यविषयोनी के विकल्पोनी अपेक्षा केम होय? पोताना बेहद सुखस्वभावने
भूलीने अज्ञानी जीव भ्रान्तिथी अनंता परद्रव्योमां (–खावामां, शरीरमां, स्त्रीमां,
होदमां, लक्ष्मी वगेरेमां) सुख माने छे, पण पोतामां खरेखर सुखनो समुद्र भर्यो छे ते
तेने भासतो नथी. भाई, तारुं सुख तो तारामां छे ने ते सुखनुं साधन पण तारामां
छे. तारी सुखशक्ति