नथी. सुखगुणनुं कार्य तो सुखरूप होय, दुःखरूप न होय. उदयभावमां सुख नथी ने
उदयभावना फळरूप बाह्य संयोग तेमां पण सुख नथी. अरे, जडमां तारुं सुख
होय? कदी न होय. जेनामां पोतामां सुखगुण ज नथी ते तने सुख क््यांथी
आपशे? आत्मामां ज आत्मानो आनंद छे. पण, मारामां मारो आनंद छे एवो
तने तारो भरोसो नथी एटले बहारथी आनंद लेवा माटे व्यर्थ झावां नांखे छे.
जेम झांझवाना जळथी तरस कदी छीपे नहि केमके त्यां पाणी ज नथी; तेम विषयो
तरफना वलणथी कदी आकुळता मटे नहि केमके त्यां सुख छे ज नहि. भाई, सुखनो
दरियो तो तारामां छलोछल भर्यो छे तेमां डुबकी लगाव तो तने तृप्ति अनुभवाय,
ने तारी आकुळता मटी जाय. सुख एटले मोक्षमार्ग, ते शुभरागवडे थाय नहि.
अरे, सुख तो स्वाश्रितभावमां होय के पराश्रितभावमां? पराधीनता स्वप्नेय सुख
नहि. स्वाधीनता एटले के आत्म– स्वभावनो आश्रय ते ज सुख छे.–ए सुखमां
अन्य कोईनी जरूर पडती नथी.
जुओने, चार दिवस पहेलां तो एक भाई अहीं सभामां व्याख्यान सांभळवा
आवेला, ने आजे तो ते हृदय बंध पडी जवाथी मुंबईमां गुजरी गया–एवा
समाचार संभळाय छे.–आवुं क्षणभंगुर जीवन छे. माटे तेमां बीजुं बधुं गौण
करीने आत्माना हितनुं साधन करी लेवा जेवुं छे. आत्मानुं हित करवामां बहारनुं
कोई साधन नथी. रोटलो, ओटलो ने पोटलो होय तो सुखी थईए–एम लोको
माने छे; पण भाई! तारा आत्मामां ज असंख्यप्रदेशी ओटलो, आनंदना
अनुभवरूपी रोटलो ने अनंतगुणनो पोटलो छे. आवा रोटला, ओटला ने
पोटलामां तारुं सुख छे. परनुं होवापणुं कांई तारामां आवतुं नथी. परने जाणतां
पोताना भिन्न अस्तित्वने अज्ञानी भूली जाय छे. सुख वगेरे गुणो आत्मामां
त्रिकाळ छे, ते कांई नवा करवाना नथी, पण ते गुणनी ओळखाण वडे पर्यायमां
सुख वगेरे प्रगटे छे–ने तेनुं नाम ‘आत्मप्रसिद्धि’ छे.