Atmadharma magazine - Ank 283
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४९३ आत्मधर्म : ३प :
निरपेक्षपणुं समजवुं. आवी अनंतशक्तिना वैभवथी भरेलो आत्मा पोते, तेनी
कांई किंमत अज्ञानीने देखाती नथी, ने लाखो के करोडो रूपिया भेगा थाय त्यां
तो जाणे हुं दुनियामां केवो मोटो थई गयो–एम तेनी किंमत भासे छे! भाई,
एनाथी तारी किंमत नथी. एनाथी तो अनेकगणा उत्तम वैभव स्वर्गमां तें
अनंतवार मेळव्या, पण तने सुख किंचित्मात्र न मळ्‌युं. अने निगोदना एक
सूक्ष्मशरीरमां अनंता जीवो समाई जाय–एवी दशामां पण अनंतकाळ तें गाळ्‌यो.
अत्यारे हवे आवुं मनुष्यपणुं, आवो सत्संग पाम्यो छो तो तुं आत्मतत्त्वनुं
स्वरूप समज, तारी अनंतशक्तिना शाश्वत वैभवने संभाळ...के जेमांथी तने साचुं
सुख मळे.
चैतन्यना आनंदसागरमां डोलतो आ भगवान आत्मा, तेना आनंदमां
आकुळतानी छाया पण नथी. एनो भरोसो करनार सम्यग्द्रष्टिने परमां जरापण
सुख भासतुं नथी. चक्रवर्तीना वैभव वच्चे पण सम्यग्द्रष्टि जाणे छे के आ
बाह्यवैभवमां अमे नथी, ने अमारामां ते नथी; ते वैभवमां अमारुं सुख नथी;
जेमां अमारुं अस्तित्व ज नहि तेमां अमारुं सुख केम होय? अमारुं सुख तो
अमारामां, अमारा निजवैभवमां ज छे. स्वानुभवथी अमारुं अंतरनुं सुख अमे
देख्युं छे, अमारा निजवैभवने अमे जाण्यो छे. अरे, आ बाह्यवैभवमां अमारुं
अस्तित्व नथी, ज्यां अमे छीए त्यां अनंतुं सुख भर्युं छे, अमारा अस्तित्वमां
आनंदना सागरनी छोळो ऊछळे छे. आ राज्य प्रत्ये के स्त्रीआदि प्रत्ये जराक
वलण जाय छे ए तो बधा रागनां चाळा छे; उदयभावनी चेष्टारूप आ राग पण
खरेखर अमे नथी तो पछी बहारना पदार्थो तो अमारा क््यांथी होय? तेमां क््यांय
अमने अमारुं सुख देखातुं नथी.
‘पण संयोगमां ऊभेला देखाय छे ने?’ तो कहे छे के भाई, तने एना अंतरनी
खबर नथी; एनी अंतरनी दशाने तुं ओळखतो नथी. एनी द्रष्टि बधेयथी ऊठी गई छे
ने एक आत्मामां ज द्रष्टि लागी छे. द्रष्टि ज्यां लागी छे त्यांथी ते खसती नथी; ने द्रष्टि
ज्यांथी खसी गई त्यां हवे लागती नथी. अने, जेनी ज्यां द्रष्टि छे त्यां ज खरेखर ते
ऊभा छे. ज्ञानी संयोगमां ऊभा छे के स्वभावमां? तेनी खबर अज्ञानीने पडे नहि.
ज्ञानीने संयोगनी रुचि छूटी थई छे ने निजस्वभावनी रुचि थई छे, तेथी खरेखर ते
संयोगमां