Atmadharma magazine - Ank 283
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९३
नथी ऊभा, रागमां पण नथी ऊभा, पोताना स्वभावमां ज ऊभा छे. जे
रागपरिणमन छे ते कांई ‘ज्ञानी’ नथी, तेना वडे ‘ज्ञानी’ ओळखाता नथी; राग
वगरनी निर्मळ परिणतिमां परिणमतो आत्मा ते ज ‘ज्ञानी’ छे, ते परिणतिवडे ज
‘ज्ञानी’ ओळखाय छे. आ प्रकारनी ज्ञानीनी साची ओळखाण जीवने दुर्लभ छे.
ज्ञानीनी दर्शनशुद्धिमां आत्माना आनंदनो ज आदर छे, एटले तेने आनंदनुं वेदन ज
मुख्य छे; संयोगनो आदर नथी, रागनो आदर नथी एटले द्रष्टिमां तेना वेदननो
अभाव छे.
अहो, संयोग अने राग वच्चे ऊभेला देखाय छतां ज्ञानीनी द्रष्टि कोई जुदुं ज
काम करे छे. तेनुं वर्णन करतां कवि दौलतरामजी कहे छे के–
चिन्मूरत–द्रग्धारीकी मोहे रीति लगत है अटापटी।
बाहर नारकीकृत दुःख भोगै अन्तर सुखरस गटागटी।
रमत अनेक सुरनि संग पै तिस परिणतितैं नित हटाहटी।
ज्ञान–विराग शक्तितैं विधिफल भोगत पै विधि घटाघटी।
सदननिवासी तदपि उदासी तातें आस्रव छटाछटी।
नरकना संयोगने के स्वर्गना संयोगने, के ते तरफना दुःख–सुखना भावने
सम्यग्द्रष्टि तन्मयपणे नथी वेदता, ते तो पोताना सुखगुणना निर्मळपरिणमनरूप
आनंदने ज तन्मयपणे वेदे छे. प्रतिकूळ संयोगनो के दुःखनो तेमां अभाव छे. ए
संयोग वखते पण अंतरमां तो ते अतीन्द्रिय सुखरसने गटगटावे छे. आवो
सुखस्वभाव दरेक आत्मामां छे. ज्ञानपरिणति साथे ते सुख भेगुं ज परिणमे छे.
असंख्यप्रदेशी द्रव्य, ज्ञानादि अनंतगुणो ने तेनुं निर्मळ परिणमन, आ त्रणे
थईने अखंड आत्मवस्तु छे. आवी आत्मवस्तुने लक्षमां लेतां समये समये नवो
नवो आनंद परिणमे छे. ते आनंद परिणमीने आत्माना सर्वगुणोमां व्यापे छे,
एटले सुखनी अनुभूतिमां अनंतगुणनो रस वेदाय छे. जेम ‘सर्व गुणांश ते
सम्यक्त्व’ कह्युं छे तेम आमां पण समजवुं. अनंतगुणमां व्यापक सुख
अनंतगुणना रसथी भरेलुं अनंतुं छे.
(बाकी आवता अंकमां)