Atmadharma magazine - Ank 283
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : वैशाख : २४९३
गुजरातमां
प्रवेश्या त्यारे
जयपुरमां उत्सव तथा सम्मेदशिखरजी वगेरे
तीर्थनी यात्रा कर्या बाद पुन: गुजरातमां आव्या; ने
गुजरातमां पहेलुं प्रवचन बामणवाड गामे थयुं.
हजार उपरांत मुमुक्षुओ तेमज ग्राम्यजनो समक्ष
गुरुदेवे अत्यंत सरळ शैलीमां राजाना द्रष्टांते
आत्मानी सेवा करवानो उपदेश आप्यो.
(चैत्र वद ९ ता. २–प–६७)
छे; देहथी भिन्न सच्चिदानंदस्वरूप आ जीवराजा छे. जेम राजाने प्रसन्न करवा माटे तेने
ओळखीने निःशंकपणे तेनी सेवा करे छे ने राजा तेने धन आपे छे, तेम आ देहमां
रहेलो चैतन्यराजा, तेने ओळखीने, तेनी श्रद्धा करीने तेमां एकाग्रता द्वारा तेनी सेवा
करवी.–आ रीते आत्मानी सेवा करवाथी धर्म थाय छे ने साचुं सुख मळे छे.
अहो, आ तो पंचमकाळमां सन्तोए अमृत वरसाव्या छे. भाई, आत्मानुं
स्वरूप शुं छे ते समज्या वगर पुण्य ने पाप करी करीने स्वर्ग–नरकादि चार गतिमां तें
अनंता अवतार कर्या; भले तने याद नथी पण तेथी कांई ते वातनुं अस्तित्व मटी न
जाय. आत्मा तो अनादिनो छे, ते कांई नवो थयो नथी, तेमज तेनो नाश थई जतो
नथी. ए तो छे...छे...ने छे...त्रिकाळी तत्त्व छे. अज्ञानभावे ते संसारमां रखडे छे. जो
आत्मानुं ज्ञान करीने मोक्ष पामे तो फरी तेने चार गतिमां अवतार रहे नहीं.
आचार्यदेव कहे छे के भाई! तुं तो चैतन्यस्वरूप छो, ज्ञान–आनंद वगेरे
अनंतगुणोनो तुं ढगलो छो. तारा गुणोने भूलीने तें जे अज्ञान अने राग–द्वेष कर्या छे,
ते तारो दोष छे. देहादि परद्रव्य कांई तारां थई गया नथी; ए वस्तु तो जुदी छे.
पोतामां जे राग–द्वेष–मोहरूप मेल छे ते आत्मानी