Atmadharma magazine - Ank 284
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : जेठ :
२४९३
अपार सुखथी भरेलो आत्मवैभव
(“आत्मवैभव” पुस्तकनुं एक प्रकरण)
(गतांकथी चालु)
पू. गुरुदेवने अत्यंत प्रिय एवा ४७ शक्तिनां
प्रवचनोमांथी सुखशक्तिनो आ नमुनो छे. शरूनो
भाग आत्मधर्मना गतांकमां आप्यो छे; त्यारपछीनो
भाग अहीं आप्यो छे. आ प्रवचनो ‘आत्मवैभव’
नामना पुस्तकरूपे छपाई रह्या छे.
दरेक शक्ति पोते कारण, ने तेनी जे निर्मळ पर्याय प्रगटी ते तेनुं कार्य;
बीजुं कारण नहि, बीजुं कार्य नहि; ने कारण–कार्य वच्चे समयभेद नहि. ‘कारणने
अनुसरीने थाय तेने कार्य कहेवाय’;–एटले, जेमके सुखशक्ति कारणरूप छे तेने
अनुसरीने पर्यायमां तेवुं सुख प्रगटे ते सुखशक्तिनुं खरुं कार्य छे. जो आनंद न
प्रगटे ने पराधीन थईने आकुळता प्रगटे तो तेने आत्माना आनंदगुणनुं कार्य
कहेवाय नहि. जेवो गुण छे तेवी जातनी पर्याय प्रगट्या वगर गुणना खरा
स्वरूपनी प्रसिद्धि थाय नहि.
गुणनुं साचुं कार्य तेनी सद्रश जातिनुं होय, विरुद्ध न होय. जेम सोनामांथी
जे दागीनो बने ते सोनानो होय, लोढानो न होय; तेम सुखगुणनुं कार्य सुख
होय, सुखनुं कार्य दुःख न होय. सुखगुण जेवो त्रिकाळ छे तेवुं सुख पर्यायमां
प्रगटे त्यारे सुखस्वभावी आत्मा प्रतीतमां आव्यो कहेवाय; ने त्यारे
‘आत्मप्रसिद्धि’ थई कहेवाय.
अहो, वीतरागमार्गमां आ बहु ऊंची वस्तु छे...आत्मानो अचिन्त्य वैभव
वीतरागी सन्तोए देखाडयो छे. आत्मा अनंतगुणनुं धाम छे तेने अनुभवमां
पकडीने तेना जेवुं सम्यक् कार्य प्रगटे त्यारे आत्मानी साची श्रद्धा ने भेदज्ञान थयुं
कहेवाय; त्यारे आकुळता वगरनुं साचुं सुख वेदाय, ने परमां सुखनी
मिथ्याकल्पना मटे.