Atmadharma magazine - Ank 284
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९३ आत्मधर्म : ११ :
सुखसमुद्रमां डुबकी मारीने चैतन्यभगवाननो भेटो कर्यो, त्यां आनंद प्रगट्यो.
अनादिथी अज्ञानभावे रागने भेटती ते पर्यायमां दुःख हतुं. हवे आनंदस्वभावने
भेटतां जे सुखपरिणति प्रगटी तेमां आकुळतानो अभाव छे; अनंतगुणना रसनुं
वेदन आनंदमां समायेलुं छे. आ रीते शुद्धतानो सद्भाव ने अशुद्धतारूप
व्यवहारनो अभाव–आवो अनेकान्तस्वरूप आत्मा छे. आवा आत्मानुं भान थाय
त्यां मुक्ति थये छूटको. जेम बीज ऊगी ते वधीने पूर्णिमा थये छूटको, तेम
सम्यग्दर्शन थतां भेदज्ञानरूपी बीज ऊगी ते वधीने केवळज्ञान थये ज छूटको. अहो,
चैतन्यगुणना भंडारने एकवार स्पर्शे, नजरमां ल्ये, ध्येयरूप करे, तेनो भेटो करे,
लक्षमां ल्ये, रुचि–प्रतीत ने ज्ञान करे, त्यां अपूर्व आनंदनो अंश प्रगटे ने ते वधीने
पूर्ण आनंदरूप मोक्षदशा थाय. एकवार रागथी भिन्न थईने ज्ञाननो सम्यक् अंश
प्रगट्यो त्यां रागनो सर्वथा अभाव करीने अल्पकाळमां केवळज्ञान लीधे छूटको.
आत्माने ओळखे तेने मोक्ष थये छूटको.
अहीं कहे छे के, थोडो आनंद वधीने पूरो आनंद थाय, तेमां बीजानी
बिलकुल मदद नथी, आनंदगुण पोते ज तेनुं साधन छे. आनंदना अनुभवरूप
क्रियाना छए कारको पोतामां ज छे. वाह, जुओ तो खरा! आत्मामां आवा
स्वभावो भर्या छे. आ स्वभाव आनंदना दातार छे; एने जाणतां आनंद थाय छे.
आत्मानो आवो स्वभाव ख्यालमां ने अनुभवमां आवी शके तेवो छे; सन्तोए ते
प्रगट अनुभवमां लईने आ वात प्रसिद्ध करी छे. पोते जे वैभव अनुभव्यो ते
जगतने देखाड्यो छे, ने पराश्रयनी दीनता टाळी छे. भाई, परनी सहाय वगर
तारो आनंद प्रगटे छे ने परनी सहाय वगर ज ते वधीने पूरो थाय छे; तेमां
शरीरनी, रागनी के बीजा कोईनी मदद नथी. केवळज्ञान ने पूर्ण आनंद प्रगटे एवा
सामर्थ्यनो पिंड तुं पोते छो. अंतर्मुख थईने पोते पोताना आवा स्वभावने प्रत्यक्ष
करी शके छे. ने आवा स्वसंवेदनवडे आत्मानो अचिंत्य वैभव खुले छे.
अरे, तारा भंडारमां आनंद भर्यो छे ने तने ते खोलतां नथी आवडतुं!
अंतरमां द्रष्टि करीने तारा आत्माना अचिंत्य वैभवने खोल; शक्तिमां भर्युं छे तेने
व्यक्त कर. ए माटे तारे बहार क्यांय जोवुं पडे तेम नथी, बीजा