Atmadharma magazine - Ank 284
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९३ आत्मधर्म : १३ :
ज्ञानीने ओळखवानुं चिह्न

भेदज्ञान माटे जेने अंतरमां जिज्ञासा
जागी छे अने भेदज्ञान माटेनो जे अभ्यास करे
छे एवो शिष्य पूछे छे के प्रभो! आत्मा
ज्ञानस्वरूप थयो ते कई रीते ओळखाय?
आत्मा भेदज्ञानी थयो ते कई रीते ओळखाय?
ज्ञानीने ओळखवानुं चिह्न शुं? अनादिथी
आत्मा विकाररूप थयो थको अज्ञानी हतो, ते
अज्ञान टाळीने आत्मा ज्ञानी थयो ते क्या
चिह्नथी ओळखाय?–ते समजावो.
जुओ, आ ज्ञानीने ओळखवानी धगश!
आवी धगशवाळा शिष्यने आचार्यदेव ज्ञानीनुं
चिह्न ओळखावे छे.

जे आत्मा ज्ञानी थयो ते पोताने एक ज्ञायकस्वभावी ज जाणतो थको ज्ञानभावे
ज परिणमे छे, ने विकारना के कर्मना कर्तापणे ते परिणमतो नथी. आ ज्ञानीनुं चिह्न छे.
जुओ, आ ज्ञानीने ओळखवानुं चिह्न! आवां चिह्नथी ज्ञानीने ओळखे तेने
भेदज्ञान थया वगर रहे नहि, एटले ते पोते पण ज्ञानी थई जाय.
अहीं ज्ञानपरिणामने ज ज्ञानीनुं चिह्न कह्युं; ज्ञानीनुं चिह्न तो ज्ञानमां होय,
कांई शरीरमां के रागमां ज्ञानीनुं चिह्न न होय. शरीरनी अमुक चेष्टावडे के रागवडे
ज्ञानी ओळखाता नथी, ज्ञानी तो तेनाथी भिन्न छे. माटे आचार्यदेव कहे छे के हे
शिष्य! जे जीव ज्ञानने अने रागने एकमेक नथी करतो पण जुदा ज जाणे छे, जुदा
जाणता थको रागादिनो कर्ता थतो नथी पण ज्ञाता ज रहे छे ने ज्ञानपरिणामनो ज कर्ता
थईने परिणमे छे, तेने तुं ज्ञानी जाण.