Atmadharma magazine - Ank 284
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : जेठ : २४९३
जेम मोटा राजामहाराजाओने धजामां चिह्न होय छे, ते चिह्न उपरथी ते ओळखाय छे,
ज्ञानी धर्मात्मा तो राजानो पण राजा छे, तेनी धजानुं कांई चिह्न खरुं? तो कहे छे के हा;
रागादिना अकर्तापणारूप जे ज्ञानपरिणाम ते ज ज्ञानीनी धर्मधजानुं चिह्न छे, ते
चिह्नवडे ज्ञानी–राजा ओळखाय छे. अने आ रीते ज्ञानपरिणामवडे ज्ञानीने
ओळखनार जीव पोते पण ते काळे ज्ञानस्वरूप थईने, कर्तृत्व रहित थयेलो शोभे छे.
आ रीते सम्यग्द्रष्टि जीवनुं चिह्न बताव्युं. ‘वाह! भारे अद्भुत वात करी छे, जे
जागीने जुए तेने जणाय तेवुं छे.’
(समयसार गाथा ७प उपरना प्रवचनोमांथी)
संसारमें जन्म–मरण तो हुआ ही करता है.
जन्ममरणसे बचना हो तो संसारमें नहीं रहना चाहीए.
दूसरोंके मरणसे तुं दुःखी होता है लेकिन पहले
तेरी आत्माको तो मरणसे छूडा.
अशरीरी आत्माकी भावना करना
यही जन्म–मरणसे छूटनेकी राह है.
शांति
आत्मानी शांति जोईती होय तो सन्तो तने आ
एक मंत्र आपे छे के तारो आत्मा शुद्ध परमात्मा छे तेने
उपादेय करीने तेनुं ज रटण कर. आ जगतमां कांई पण
शरण होय ने क्यांय पण सुख होय तो ते शुद्धात्मामां ज छे;
बीजुं कांई शरण नथी ने बीजे क्यांय किंचित् सुख नथी.
माटे तारा शुद्धात्माने देहादिथी अत्यंत भिन्न ओळख, तेनो
आश्रय करीने तेनुं शरण ले, तेने उपादेय करीने तेमां
ज्ञानने जोड.–एमां परम शांति छे.
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