: जेठ : २४९३ आत्मधर्म : १७ :
(लेखांक : प०)
भगवानश्री पूज्यपादस्वामी रचित समाधिशतक उपर पूज्यश्री
कानजीस्वामीनां अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
आत्मधर्मना घणा जिज्ञासु पाठको तरफथी सहेला लेखोनी मांगणी
थतां, १२प मास पहेलां (अंक १प८थी) शरू करवामां आवेली आ सहेली
लेखमाळा हवे पूर्णतानी नजीक पहोंची रही छे. सौने पसंद पडेली आ
लेखमाळा ए समाधिशतक उपरनां प्रवचनो छे. समाधिशतकना रचनार श्री
पूज्यपादस्वामी लगभग १४०० वर्ष पहेलां (छठ्ठी–सातमी शताब्दिमां)
थई गयेला महान दिगंबर संत छे; तेमनुं बीजुं नाम ‘देवनंदी’ हतुं; तेओ
पण विदेहक्षेत्रे सीमंधरभगवान पासे गयेला एवो उल्लेख शिलालेखोमां छे.
तत्त्वार्थसूत्र उपर ‘सर्वार्थसिद्ध’ जेवी महान टीका, तथा जैनेन्द्र–व्याकरण
वगेरे महान ग्रंथो तेमणे रच्या छे. तेमनी अगाधबुद्धिने लीधे मुनिओए
तेमने ‘जिनेन्द्रबुद्धि’ कह्या छे.–आवा आचार्यना समाधिशतक उपरनां आ
प्रवचनो आप दश वर्षथी वांची रह्या छो.–सं.
अव्रत अने व्रत बंनेनो त्याग करवाथी शुं थाय छे?–एम पूछवामां आवतां
आचार्यदेव कहे छे के ए बंनेना त्यागथी आत्माने परमप्रिय हितकारी ईष्ट एवा सुंदर
परमपदनी प्राप्ति थाय छे.–
यदन्तर्जल्पसंपृक्तमुत्प्रेक्षा –जालमात्मनः।
मूलं दुःखस्य तन्नाशे शिष्टमिष्टं परं पदम्।। ८५।।
अंतरमां अनेक प्रकारना संकल्प–विकल्पोरूप जे कल्पनाजाळ छे ते ज आत्माने
दुःखनुं मूळ छे; चैतन्यस्वरूपमां एकाग्रतावडे तेनो नाश करतां पोताना प्रिय हितकारी
एवा परमपदनी प्राप्ति थाय छे–एम जिनदेवे कह्युं छे.
संतो कहे छे के ‘निर्विकल्परस पीजीये’ ...एटले पोताना चिदानंदमय परम
अतीन्द्रिय स्वरूपनुं निर्विकल्प वेदन करवुं ते ज आनंद