Atmadharma magazine - Ank 284
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९३ आत्मधर्म : २९ :
थईने नमस्कार कर्या; अने भगवानना केवळज्ञाननो उत्सव करवा आवी पहोंच्या.
देवरूपी कारीगरोए अत्यंत भक्तिपूर्वक बनावेला उत्तम समवसरणनी दिव्य शोभा
देखतां ज ईन्द्रने पण आश्चर्य थयुं. अहो! जाणे त्रणलोकनुं मंगल दर्पण होय! एवा
समवसरणनुं वर्णन सांभळतांय भव्यजीवोनुं मन प्रसन्न थाय छे, तो एनां साक्षात्
दर्शननी शी वात! रत्नोनी रजथी बनेलो धूलीशालकोट सोनानां स्थंभ ने
मणिरत्नोनां तोरणोथी शोभतो हतो, अंदर चार रस्ता वच्चे अत्यंत ऊंचा ने
अद्भुत चार मानस्तंभ हतां, एने दूरथी देखतां ज मिथ्याद्रष्टि जीवोनुं मान थंभी
जतुं हतुं. भगवानना अनंत चतुष्टयना चिह्न जेवा चार मानस्तंभमां
जिनेन्द्रभगवाननी सुवर्ण प्रतिमाओ हती. मानस्तंभ ईन्द्रे रचेल होवाथी तेने
ईन्द्रध्वज पण कहे छे. तेनी बाजुमां पवित्र वावडी हती ने थोडे दूर समवसरणने
फरती पाणीनी परिखा हती, पछी लतावन हतुं; लतावनमां ईन्द्रोना विश्राम माटे
चंद्रकान्तमणिनी बेठको हती. त्यारपछी सोनानो कोट हतो, तेना चार दरवाजा १०८
मंगळद्रव्योथी शोभता हता; ने तेनी बाजुमां नवनिधि हती,–जाणे के भगवाने ए
निधिनो तिरस्कार (–त्याग) करी दीधो तेथी ते दरवाजानी बहार ऊभीऊभी सेवा
करती होय! पछी नाट्यशाळा तथा धूपघटने ओळंगीने आगळ जतां सुंदर वन
आवतुं हतुं; जाणे के झाडनां पुष्पोवडे ए वन प्रभुजीने पूजी रह्युं होय! एवुं
सुशोभित हतुं. ए वननां वृक्ष एटला बधा प्रकाशवाळा हतां के त्यां दिवस–रातनो
भेद पडतो न हतो. अशोकवननी वच्चे अशोक नामनुं एक मोटुं ‘चैत्यवृक्ष’ हतुं,–
जे अष्टमंगलथी तथा जिनप्रतिमाथी शोभतुं हतुं.–ए जोतां ईन्द्रने पण एम थतुं के
अहो! जेमना समवसरणना वैभवनुं आवुं अद्भुत माहात्म्य, ते भगवान
ऋषभदेवना अनुपम केवळज्ञान–वैभवनी तो शी वात! सुंदर वनवेदिका पछी
सुवर्णना थांभला पर ४३२० ध्वजाओनी हार फरकती हती, जे भगवानना
मोहनीयकर्म उपरना विजयने प्रसिद्ध करती हती. (आ ध्वजस्तंभ, मानस्तंभ,
चैत्यवृक्ष, वगेरेनी ऊंचाई तीर्थंकरोना शरीरनी ऊंचाईथी बारगणी होय छे.)
ध्वजाओनी भूमिका पछी चांदीनो मोटो गढ हतो, जे चार दरवाजाथी अत्यंत
शोभतो हतो. तेनी अंदर दैदीप्यमान कल्पवृक्षोनुं उत्तम वन हतुं; ने तेनी मध्यमां
सिद्धप्रभुनी प्रतिमा सहित सिद्धार्थवृक्ष शोभतुं हतुं. ऊंचाऊंचा नव स्तूप–मंदिरो
सिद्ध अने अर्हन्तप्रतिमाओ वडे बहु आनंदकारी लागता हता. एनाथी थोडे दूर
स्फटिकमणिनो विशुद्ध कोट एम सूचवतो हतो के आ जिनेन्द्रभगवाननी समीपमां
भव्य जीवनां