: ३० : आत्मधर्म : जेठ : २४९३
परिणाम स्फटिक जेवा विशुद्ध थई जाय छे. स्फटिकना गढने चारबाजु पद्मरागमणिना
दरवाजा हता. पछी चार रस्तानी वच्चेना भागमां स्फटिकनी चार–चार दिवालो हती,–
जे बारसभानो विभाग करती हती अद्भुत वैभववाळी ए दीवालो उपर रत्नना
थांभला वडे रचायेलो आकाशस्फटिकमणिनो बनेलो घणो विशाळ ने अतिशय
शोभायुक्त ‘श्रीमंडप’ हतो. ए श्रीमंडप तो श्रीमंडप ज हतो. भगवाने ए मंडप वच्चे
त्रण लोकनी श्री–(शोभा) ने धारण करी हती. त्रण लोकना समस्त जीवोने स्थान दई
शके एवा सामर्थ्यवाळा श्रीमंडपनो वैभव अदभुत हतो. भगवानना चरणनी
शीतलताना प्रतापे ए मंडपनी पुष्पमाळा कदी करमाती न हती. अहो,
जिनेन्द्रभगवाननुं आ कोई अद्भुत माहात्म्य हतुं के मात्र एक योजनना श्रीमंडपमां
समस्त सुर–असुर ने मनुष्यो एकबीजाने बाधा कर्या वगर सुखपूर्वक बेसी शक्ता
हता. त्यारपछी प्रभुनी पहेली पीठिका वैडुर्यरत्ननी हती–जेना उपर अष्टमंगल तथा
धर्मचक्र शोभता हतां. बीजी पीठ सोनानी हती, तेना उपर सिद्धोनां गुण जेवी आठ
महा धजाओ शोभती हती; ने त्रीजी पीठिका विविध रत्नोनी बनेली हती. आवी त्रण
पीठिका उपर बिराजमान जिनेन्द्रभगवान एवा शोभता हता के–जेवा त्रणलोकना
शिखर उपर बिराजमान सिद्धप्रभु शोभे छे.
प्रभुना समवसरणनी आवी दिव्य विभूति जयवंत हो के जेनी शोभा देखीने
ईन्द्र पण अतिशय प्रसन्न थयो, देवो पण आश्चर्यथी देखवा लाग्या के अहो! जिनेन्द्र
भगवाननो आ कोई अद्भुत प्रभाव छे.
सिंहासनादि अष्ट प्रतिहार्य
त्रण पीठिका उपर कुबेरे गंधकुटी रची हती. अतिशय दैदीप्यमान ए गंधकुटीना
रत्नजडित शिखर पर करोडो विजयपताका फरकती हती. ६०० धनुष लांबी–पहोळी
गंधकुटी उपर सोनानुं ‘सिंहासन’ हतुं. तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव एने शोभावता
!!
समवसरणमां देवो द्वारा ‘पुष्पवृष्टि’ थती हती.
भगवाननी नीकट एक ‘अशोकवृक्ष’ हतुं, जेमां मरकतमणिना पांदडां अने
विविधरत्नोनां पुष्प हता. एक योजननुं ए अशोकवृक्ष शोकने नष्ट करतुं हतुं, ने
खीलेलां पुष्पो वडे प्रभुने पूजतुं हतुं.
उपर रत्नजडित त्रण सफेद ‘छत्रो शोभता हता–जे त्रणलोकने आनंदकारी हता.
चारे बाजु देवो चोसठ ‘चामर’ ढाळता हता.