Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : अषाड : २४९३
धर्मचक्र तथा धर्मध्वजनुं पण सन्मान कर्युं ने अतिशय भक्तिपूर्वक भगवान जिनेन्द्र–
देवने देख्या. अहा, अष्ट प्रातिहार्यना वैभवयुक्त भगवानने नीहाळतां महा
आनंदपूर्वक भरते तेमनी पूजा करी अने बंने घूंटण जमीन पर राखीने नमस्कार कर्या;
तथा स्तुति करवा लाग्या: हे प्रभो! आप धर्मना नायक छो, आप मोक्षमार्गना नेता
छो, आत्मस्वरूपने जाणनाराओना आप ध्येय छो. ईन्द्रियो विद्यमान होवा छतां आप
अतीन्द्रिय छो; विषय–कषायरहित संपूर्ण सुख आपने प्रगट्युं छे. प्रभो! आप तो
अनंतगुणसम्पन्न छो, अमे अल्पबुद्धिजीवो आपना पवित्र गुणोनुं स्तवन कई रीते
करी शकीए? आपना गुणोनी स्तुति तो दूर रही, आपनुं नाम पण अमने पवित्र करे
छे.–ईत्यादि प्रकारे १०८ नामोवडे स्तुति करी. हे प्रभो! आपने ज ईष्टदेव मानीने अमे
आपनी ज उपासना करीए छीए, ने आपे देखाडेलो मोक्षमार्ग उपासीने मोक्ष प्राप्त
करवा चाहीए छीए.
ए प्रमाणे स्तुति करीने देवो पण जेने आश्चर्यथी जोई रह्या छे एवा ते
भरतचक्रवर्ती श्रीमंडपमां जईने मनुष्योनी सभामां अग्रस्थाने बेठा. आखी सभा
तत्त्वनुं स्वरूप जाणवानी ईच्छाथी भगवाननी दिव्य वाणी सांभळवा माटे हस्तांजलि
जोडीने शांत थई गई. त्यारे महाराजा भरते विनयपूर्वक भगवानने प्रार्थना करी: हे
भगवान! तत्त्वो केटला छे? मोक्षनो मार्ग शुं छे? ने ते मार्गनुं फळ शुं छे? हे श्रेष्ठ
तत्त्ववेत्ता! ते हुं आपनी पासेथी सांभळवा चाहुं छुं.
भगवाननी दिव्यध्वनिवडे भरतक्षेत्रमां धर्मवर्षानो प्रारंभ
भरतराजनो प्रश्न समाप्त थतां तीर्थंकर भगवान ऋषभदेवे अत्यंत गंभीर
दिव्यवाणी द्वारा तत्त्वोनुं विवेचन कर्युं. दिव्यवाणी छूटती वखते पण भगवानना
मुखमां कोई फेरफार (होठनुं हलनचलन वगेरे) थतो न हतो,–शुं पदार्थोने प्रकाशीत
करती वखते दर्पणमां विकार थाय छे?–नहि. प्रयत्न विना सर्वांगेथी ए
वीतरागवाणीनो धोध वहेतो हतो. जेम पर्वतनी कोई ऊंडी गूंफामांथी अवाज आवतो
होय एम प्रभुनी दिव्यध्वनि अति गंभीर हती. अहो, तीर्थंकरादि महापुरुषोनुं योगबळ
ने एमनी प्रभुता कोई अचिन्त्य होय छे!
समवसरण वच्चे दिव्यध्वनिमां भगवाने जीवादि छ द्रव्योनुं यथार्थ स्वरूप कह्युं.
जगतमां जीव ने अजीव एम बे प्रकारनां द्रव्यो छे; जीव पण संसारी ने मुक्त एम