Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : अषाड : २४९३
चारित्र वगर एकला दर्शन–ज्ञानवडे पण मोक्ष सधातो नथी. आ रीते रत्नत्रयरूप
मोक्षमार्ग भगवाने बताव्यो.
जैनधर्ममां आप्त आगम अने पदार्थोनुं जे स्वरूप कह्युं छे तेनाथी वधारे के
ओछुं त्रणकाळमां होतुं नथी.–आवी श्रद्धानी द्रढतावडे सम्यग्दर्शनमां विशुद्धता थाय छे.
जेओ अनंत–ज्ञानादि गुणोसहित सर्वज्ञ छे, जेमणे मोहादि कर्मकलंक धोई नांख्या छे,
जेओ निर्मळताना भंडार छे ने निर्मळ जेमनो आशय छे, सौना हितोपदेष्टा छे–एवा
वीतराग जिनदेव ते ‘आप्त’ छे, ते ज ईष्टदेव छे. एवा आप्तपुरुषनी वाणी के जे संपूर्ण
पुरुषार्थने उपदेशनारी छे ने नयप्रमाणोथी गंभीर छे ते ‘आगम’ छे. तेमां कहेलां
अनेकान्तस्वरूप जीवादि पदार्थो ते तत्त्वो छे. आवा आप्त–आगम ने तत्त्वने बराबर
ओळखवा जोईए. जीव–अजीव आदि पदार्थो पोतपोताना गुण–पर्यायरूपे परिणमन
करे छे; समस्त पदार्थोमां परिणमन स्वयमेव थाय छे, अने काळद्रव्य तेमां
सहकारीकारण छे.–आवा पदार्थस्वरूपने जे जाणे छे ते परमब्रह्म पदने पामे छे.
आ रीते भरतक्षेत्रना आद्यतीर्थंकर भगवान ऋषभदेवे दिव्यध्वनिद्वारा
जीवादि छ द्रव्योनुं, मोक्ष वगेरे पुरुषार्थनुं, मुनिधर्म तथा श्रावकधर्मनुं, मोक्ष अने
तेना मार्गरूप रत्नत्रयनुं, बंध अने बंधनां कारणोनुं, संसारी अने मुक्तजीवनुं,
त्रणलोकनी रचनानुं, स्वर्ग–नरक ने द्वीप–समुद्र वगेरेनुं, तीर्थंकरो–चक्रवर्तीओ
वगेरेना चरित्रनुं, तीर्थंकरोना कल्याणकोनुं, गुणस्थान–मार्गणास्थाननुं, गति–
आगतिनुं तथा मुनिओनी ऋद्धि वगेरेनुं निरूपण कर्युं. सर्वने जाणनारा ने सर्वनुं
कल्याण करनारा भगवान ऋषभदेवे भूत–भविष्य–वर्तमान त्रणेकाळसंबंधी समस्त
द्रव्योनुं संपूर्ण स्वरूप बताव्युं.
अहा, आ भरतक्षेत्रमां असंख्याता वर्षो बाद तीर्थंकर भगवाननी दिव्यवाणी
पहेलवहेली पुरितमालनगरीमां छूटी...ए दिव्यध्वनिनी शी वात!! ने ए अमृतधोधने
झीलनारा श्रोताओना आनंदनी शी वात!! भगवाने कहेलुं तत्त्वस्वरूप सांभळीने
भरतराज अने बारे सभाना जीवो परम आनंदने पाम्या. दिव्यध्वनिद्वारा धर्मरूपी
अमृतनुं पान करीने बधा जीवो परम हर्षथी संतुष्ठ थया. परम आनंदित थईने
भक्तिनिर्भर एवा भरतराजा भगवान समीपे सम्यक्त्वनी शुद्धि तेम ज अणुव्रतोनी
परमविशुद्धिने पाम्या.