
त्याग–ग्रहणनी बुद्धि तो पडी ज छे, अतीन्द्रिय चैतन्यस्वभाव तो तेणे लक्षमां लीधो
उपर राग छे. ए रीते जेने आत्मानुं भान नथी तेने देहादिनी ममतानो खरो त्याग
थतो ज नथी. बाह्य भोगोथी निवृत्ति करीने परमात्मपदमां प्रीति जोडवानी हती, तेने
बदले शरीरने मोक्षनुं साधन मान्युं, एटले शरीरमां ज तेणे पोतानुं अस्तित्व मानीने
तेमां प्रीति जोडी,. पण शरीरथी भिन्न चैतन्यनुं अस्तित्व न जाण्युं, ने तेमां प्रीतिने न
जोडी; एटले ते मोही जीवने त्यागनो हेतु सर्यो नहीं. बाह्यमां त्यागी थईने पण जेनो
त्याग करवानो हतो तेनी तो तेणे प्रीति करी, अने जेनी प्राप्ति करवानी हती तेने जाण्युं
नहीं, तेमां अरुचिरूप द्वेष कर्यो.
मारुं अस्तित्व छे, मारा ज्ञानस्वभावमां ज मारुं सुख छे ने बाह्यविषयोमां क््यांय
मारुं सुख नथी’–एवुं भान करतां शरीरादिमांथी सुखबुद्धि छूटी जाय छे. शरीरना
साधन वडे चारित्रनुं पालन थशे–एवी जेनी बुद्धि छे तेने शरीर उपरनुं ममत्व छूटयुं
नथी. तेणे विषयो छोडीने पण शरीरमां ज ममत्वबुद्धि करी छे. ज्यां अंतरना
चैतन्यतत्त्वनुं वेदन नथी–आनंदनो अनुभव नथी त्यां कोई ने कोई प्रकारे
बाह्यविषयोमां ममता अने सुखबुद्धि जीवने वेदाया ज करे छे, एटले भोगोथी साची
निवृत्ति तेने होती नथी.
ममत्व छूटी जाय छे.