Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९३ आत्मधर्म : २९ :
छे. ए रीते मोही जीवनो त्याग ते खरो त्याग नथी पण ते तो रागद्वेषगर्भित छे.
निर्ममत्व चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि वगर देहादिनुं ममत्व छूटे ज नहि. चैतन्यना
भान वगर देहनुं ममत्व छोडवा माटे त्यागी थाय तोपण तेने ईन्द्रियोना विषयोमां
त्याग–ग्रहणनी बुद्धि तो पडी ज छे, अतीन्द्रिय चैतन्यस्वभाव तो तेणे लक्षमां लीधो
नथी. आ बाह्य त्याग मने मोक्षनुं कारण थशे–एम तेने शरीरनी दिगंबरदशा वगेरे
उपर राग छे. ए रीते जेने आत्मानुं भान नथी तेने देहादिनी ममतानो खरो त्याग
थतो ज नथी. बाह्य भोगोथी निवृत्ति करीने परमात्मपदमां प्रीति जोडवानी हती, तेने
बदले शरीरने मोक्षनुं साधन मान्युं, एटले शरीरमां ज तेणे पोतानुं अस्तित्व मानीने
तेमां प्रीति जोडी,. पण शरीरथी भिन्न चैतन्यनुं अस्तित्व न जाण्युं, ने तेमां प्रीतिने न
जोडी; एटले ते मोही जीवने त्यागनो हेतु सर्यो नहीं. बाह्यमां त्यागी थईने पण जेनो
त्याग करवानो हतो तेनी तो तेणे प्रीति करी, अने जेनी प्राप्ति करवानी हती तेने जाण्युं
नहीं, तेमां अरुचिरूप द्वेष कर्यो.
बाह्य विषयभोगो छोडीने व्रती थयो, ते व्रतना पालनमां जेने कष्ट अने दुःख
लागे छे तेना अभिप्रायमां विषयोमां सुखबुद्धि पडी छे. ‘हुं तो ज्ञान ज छुं, ज्ञानमां ज
मारुं अस्तित्व छे, मारा ज्ञानस्वभावमां ज मारुं सुख छे ने बाह्यविषयोमां क््यांय
मारुं सुख नथी’–एवुं भान करतां शरीरादिमांथी सुखबुद्धि छूटी जाय छे. शरीरना
साधन वडे चारित्रनुं पालन थशे–एवी जेनी बुद्धि छे तेने शरीर उपरनुं ममत्व छूटयुं
नथी. तेणे विषयो छोडीने पण शरीरमां ज ममत्वबुद्धि करी छे. ज्यां अंतरना
चैतन्यतत्त्वनुं वेदन नथी–आनंदनो अनुभव नथी त्यां कोई ने कोई प्रकारे
बाह्यविषयोमां ममता अने सुखबुद्धि जीवने वेदाया ज करे छे, एटले भोगोथी साची
निवृत्ति तेने होती नथी.
माटे देहादिथी भिन्न आत्मतत्त्वने जाणीने तेमां प्रीति जोडवी. चैतन्यमां प्रीति
करीने तेमां लीनता करतां बाह्य भोगोथी सहेजे निवृत्ति थई जाय छे ने देहादिनुं य
ममत्व छूटी जाय छे.
।। ९०।।
जैनबंधुओ, हंमेशा
जिनभगवाननां दर्शन करो.