Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९३ आत्मधर्म : ३३ :
निरालंबी आत्मामां स्वसंवेदनवडे आनंदनां झरणां झरे छे. चैतन्यना आ
आनंदप्रवाहमां वच्चे रागादि मलिनता नथी. चैतन्य–अमृतमां विकाररूपी झेरनो स्वाद
केम होय? आवुं शुद्धस्वरूप उपदेशनारा वीतरागी देव–गुरु–शास्त्र ते पूज्य छे, विनय
योग्य छे; पण तेथी करीने तेमना तरफना शुभरागवडे भगवान आत्मा प्रसिद्ध थई
जाय के स्वसंवेदनमां आवी जाय–एवुं वस्तुस्वरूप नथी. रागनी मर्यादा राग जेटली छे,
तेना वडे शुद्ध आत्मानुं स्वसंवेदन थई जाय–एवी एनी मर्यादा नथी. शुद्ध आत्मानुं
स्वसंवेदन तो रागना ने मनना आधार वगरनुं छे. प्रकाशशक्तिना आधारे ते कार्य
थाय छे, बीजुं कोई साधन तेमां नथी.
चैतन्यमूर्ति आत्मा निरालंबी छे; ते स्वशक्तिने ज अवलंबनारो छे ने परने
अवलंबनारो नथी. प्रकाशशक्तिरूप निजगुणनुं कार्य तो ए छे के राग वगर सीधुं ज्ञान
पोते आत्माने वेदे; ते वेदनमां अनंत गुणोना स्वादनुं प्रत्यक्ष वेदन समाय छे, ने
अनंत आनंद प्रगटे छे. हजी तो आवा भगवान आत्माने श्रद्धामां पण न ल्ये; अरे!
प्रेमथी तेनुं श्रवण पण न करे तेने तेनुं प्रत्यक्ष संवेदन तो क््यांथी प्रगटे? स्वभाव जेवो
छे तेवो प्रतीतमां ल्ये तो तेनुं संवेदन प्रगटे.
अहा, भरतचक्रवर्ती जेवा महापुरुषो भगवान पासे जईने नम्रतापूर्वक
आत्माना स्वसंवेदननी रीत पूछता, ने ते झीलीने पोताना अंतरमां तेवुं स्वसंवेदन
करता हता. तेनी आ वात छे. आ काळे पण आत्मानुं स्वसंवेदन थई शके छे. आवुं
संवेदन केम थाय एटले के सम्यग्दर्शन केम थाय तेनी आ वात छे. ज्ञानने अंतर्मुख
करीने आत्मानुं प्रत्यक्ष वेदन करतां सम्यग्दर्शन प्रगटे छे, एना सिवाय बीजा उपायथी
सम्यग्दर्शन थतुं नथी. आवा सत् आत्मानो महिमा आवे, तेनी प्रतीत थाय ने तेनुं
वेदन थाय–ते अपूर्व छे, ते मंगळ छे, ते धर्म छे ने ते मोक्षनो मार्ग छे. चोथा
गुणस्थानथी ज अंशे प्रत्यक्ष स्वानुभव थई जाय छे, ने निःशंक प्रतीत थाय छे के मारो
आत्मा संपूर्ण प्रत्यक्ष स्वसंवेदन स्वभाववाळो ज छे, जरापण परोक्षपणुं रहे ते मारो
स्वभाव नहीं. आवी प्रतीतवडे धर्मीजीवे अनंतधर्मवाळा पोताना शुद्धआत्मामां
अविचलद्रष्टि स्थापी छे.
आ आत्मा चैतन्यहीरो वज्र जेवो छे, परभावनो एक कण पण तेमां प्रवेशी