Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९३ आत्मधर्म : ३प :
समाय छे. आ रीते अनंतशक्तिसंपन्न आत्मा स्वानुभवनो विषय छे, विकल्पनो
विषय नथी.
आवो स्वानुभवगम्य भगवान आत्मा स्वसंवेदनमां ज्ञानीने अत्यंत स्पष्टपणे
स्वयं प्रकाशे छे, एवी तेनी प्रकाश–शक्ति छे. प्रकाश–शक्तिनुं साचुं कार्य क््यारे प्रगटे?
के अंतर्मुख थईने स्वसंवेदन करे त्यारे ते स्वानुभवमां आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष प्रकाशमान
थाय,–ते प्रकाशशक्तिनुं साचुं कार्य छे.
(‘आत्मप्रकाश’ नो बाकीनो भाग आवता अंके पूर्ण थशे.)
– * –
संसार अने दुःख * स्वभाव अने सुख
* * *
गमे तेवी मुश्केली वखते धैर्य ते ज सौथी मोटो
ईलाज छे. मुश्केली वखते जीव धैर्य गुमावी बेसे छे तेथी
ज ते घेराई जाय छे ने दुःखी थाय छे. मुश्केलीनुं एटलुं
दुःख नथी होतुं–के जेटलुं अधैर्यथी पोते ऊभुं करे छे.
बाकी तो, संसारनी परिस्थिति मुमुक्षु
विचारवानने डगले ने पगले वैराग्य उपजावे छे.
‘संसार’ अने ‘दुःख’ बंने एकबीजाना पाका मित्र छे,
तेमांथी एकने अपनाववो ने बीजाने न अपनाववुं एम
बनी न शके. ए ज रीते बीजी तरफ ‘स्वभाव’ अने
‘सुख’ बंने एकबीजाना मित्र छे–जे सदाय साथे ज
रहेनार छे.
स्वभावना महिमासहितनुं वैराग्यचिंतन जीवने
संसारनो रस ऊडाडी दे छे; ने जेमांथी रस ऊडी जाय ते
वस्तुनी गमे ते स्थिति हो–तोपण शोक के हर्ष थतो नथी.
अध्यात्मभावना माटे शूरवीरता करवी.
(एक पत्रमांथी)