भावनावडे तेने टाळवा मांगे छे. लगनी तो शुद्धआत्मामां ज लागी छे. शुद्धआत्मानी
एवी लगनी छे के मुनिने जे शुभ विकल्प आवे ते पण कलंक लागे छे; त्यां अशुभनी
तो वात पण केवी? टीका वखते विकल्प उपर अमारुं वजन नथी पण ज्ञानमां
शुद्धता वधी जशे ने विकल्प तूटी जशे. सम्यग्द्रष्टिनुं मुख्य लक्ष शुद्ध आत्मस्वभाव उपर
छे. आवा आत्माने लक्षमां लईने वारंवार तेनी भावनानुं घोलन करवा जेवुं छे. –ते
मांगळिक छे.
ज्ञानार्णवमां ब्रह्मचर्यमहाव्रतना कथननी समाप्ति प्रसंगे शास्त्रकार महाराज
विसृज विसृज मोहं विद्धि विद्धि स्वतत्त्वं।
कलय कलय वृत्तं पश्य पश्य स्वरूपं
कुरु कुरु पुरुषार्थ निर्वृतानन्दहेतोः।।४२।।
जगतना मोहने दूर कर...दूर कर, स्वतत्त्वने जाण...जाण.
चारित्रनो अभ्यास कर...अभ्यास कर, निजस्वरूपने देख....देख.
अने मोक्षना महा आनंदने माटे तुं पुरुषार्थ कर...पुरुषार्थ कर.