Atmadharma magazine - Ank 286
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म: ब्रह्मचर्य–अंक (चोथो) : श्रावण : २४९३
मारी शुद्धता थशे. विभावपरिणामने ते कलंक समजे छे, ने शुद्धात्मस्वरूपनी वारंवार
भावनावडे तेने टाळवा मांगे छे. लगनी तो शुद्धआत्मामां ज लागी छे. शुद्धआत्मानी
एवी लगनी छे के मुनिने जे शुभ विकल्प आवे ते पण कलंक लागे छे; त्यां अशुभनी
तो वात पण केवी? टीका वखते विकल्प उपर अमारुं वजन नथी पण ज्ञानमां
शुद्धात्मानुं घोलन चाले छे तेना उपर वजन छे, ने ते शुद्धात्मा तरफना लक्षना जोरथी
शुद्धता वधी जशे ने विकल्प तूटी जशे. सम्यग्द्रष्टिनुं मुख्य लक्ष शुद्ध आत्मस्वभाव उपर
छे. आवा आत्माने लक्षमां लईने वारंवार तेनी भावनानुं घोलन करवा जेवुं छे. –ते
मांगळिक छे.
कुरु कुरु पुरुषार्थ......

ज्ञानार्णवमां ब्रह्मचर्यमहाव्रतना कथननी समाप्ति प्रसंगे शास्त्रकार महाराज
एक घणा ज सुंदर श्लोक द्वारा उपदेश आपीने हितनी प्रेरणा करे छे के–
विरम विरम संगात् मुंच मुंच प्रपंचं
विसृज विसृज मोहं विद्धि विद्धि स्वतत्त्वं।
कलय कलय वृत्तं पश्य पश्य स्वरूपं
कुरु कुरु पुरुषार्थ निर्वृतानन्दहेतोः।।४२।।
रे आत्मा!
तुं संग–परिग्रहथी विरक्त था...विरक्त था, प्रपंच–मायाने छोड...छोड.
जगतना मोहने दूर कर...दूर कर, स्वतत्त्वने जाण...जाण.
चारित्रनो अभ्यास कर...अभ्यास कर, निजस्वरूपने देख....देख.
अने मोक्षना महा आनंदने माटे तुं पुरुषार्थ कर...पुरुषार्थ कर.
–आ प्रमाणे बे–बे वार कहीने आचार्य महाराजे अत्यन्त प्रेरणा करी छे; केमके
श्री गुरुमहाराज महा दयाळु छे, तेथी हितने माटे वारंवार प्रेरणा आपे छे.
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