छे; अनंता सिद्ध ज्यां पधारे ते आंगणुं केटलुं मोटुं ने केटलुं चोक्खुं?–ए
ज्ञानपर्यायनी ताकात केटली के जे अनंतसिद्धोने स्वीकारे? रागमां अटकेली
पर्यायमां एवी ताकात होय नहि. राग नहि, विकल्प नहि, कर्म नहि, देह नहि,
अपूर्णता नहि, सिद्ध जेवो पूर्ण ताकातवाळो हुं छुं–एम स्वीकारीने सिद्धने पोतामां
साथे राखीने जे ऊपड्यो ते जीव सिद्धपरिणतिने लीधा वगर पाछो नहि फरे.
मोरपींछी ने कमंडळ ते पण जेने बाह्य छे, अंदर सिद्धस्वरूपने ज पोतामां वसावीने
ध्यावी रह्या छे, तेमनुं आ कथन छे, परम वीतरागी, परम निर्दोष! अमे तो अंदर
अमारा अनंतगुणनी निर्मळता प्रगट करीने तेमां सिद्धप्रभुने बिराजमान कर्या छे;
राग नहि. परसंग नहि, अल्पज्ञता नहि, अमे तो ज्ञान–आनंदथी पूरा एवा
सिद्धने अमारा आत्मामां स्थापीने सिद्ध प्रभुनी पंक्तिमां बेठा...हवे सिद्ध थवा
सिवाय बीजो कोई मार्ग रह्यो नथी. विकाररूपे थनारा अमे नहि, अमे तो सिद्ध
थनारा.
बहुमान लईने आव्यो छो के तने सिद्धपणुं गमशे ने विकार नहि गमे.–तो अमे तने
तारुं सिद्धपणुं संभळावीए छीए ने तारो शुद्धआत्मा देखाडीए छीए; ते सांभळीने
तुं तारा आत्मामां सिद्धपणुं स्थाप. तुं श्रोता थईने आव्यो एनो अर्थ ए थयो के,
अमे जे कहीए छीए ते तारे जाणवुं छे–मानवुं छे ने आदरवुं छे. अमारी वात तने
गोठी एटले तुं सांभळवा आव्यो. हवे अमे समस्त निजवैभवथी तने तारा
आत्मानो वैभव बतावीए छीए; अनंता सिद्धोने तारी पर्यायमां समाडी दे एटले के
श्रद्धा–ज्ञानमां लईने तुं पण सिद्ध था–एवी तारा आत्मवैभवनी ताकात छे. तेनी
सामे जोईने आवा तारा सामर्थ्यनी हा पाड, तारा श्रद्धा–ज्ञानरूपी आंगणुं चोकखुं
करीने तेमां सिद्धप्रभुने पधराव. पछी अमे तने समयसार संभळावीए. तारी
प्रभुतानी हा पाडीने समयसार सांभळ! एटले जरूर