ते तो तेने रागी मानवा जेवुं छे. सम्यग्दर्शने आखा आत्मद्रव्यने स्वीकार्युं छे, तेमां
प्रकाशशक्तिनो भेगो स्वीकार छे, एटले राग वगर स्वसंवेदन थाय एवो आत्मा
सम्यग्दर्शने स्वीकार्यो छे, रागवाळो आत्मा सम्यग्दर्शने स्वीकार्यो नथी.
पक्ष कर...तेनो उल्लास लाव. आवा स्वभावनो यथार्थ निर्णय करे तेने स्वसंवेदन
थया वगर रहे नहि. आत्मानुं आवुं स्वसंवेदन ते ज धर्म छे, ते ज मोक्षमार्ग छे.
रागनो अनुभव जीवने अनादिनो छे, ते कांई धर्म नथी. रागादि भावोनो
अनुभव ते तो कर्मचेतना छे, भगवान आत्माने अनुभवमां लेवानी ताकात
तेनामां नथी; अंतरमां वळेली ज्ञानचेतनामां ज भगवान आत्माने अनुभवमां
लेवानी ताकात छे.
होय? माटे रागनी–व्यवहारनी ने पराश्रयनी रुचि छोड त्यारे ज तने परमार्थ
आत्मा अनुभवमां आवशे. निमित्तनो ने व्यवहारनो आश्रय छोडीने
द्रव्यस्वभावनो आश्रय करे त्यारे पर्यायमां स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष प्रगटे ने त्यारे
सम्यग्दर्शन थाय; अने त्यारे ज खरेखर आत्माने मान्यो कहेवाय. आवा अनुभव
पछी विकल्प वखते धर्मीने बहुमाननो एवो भाव आवे के अहो! तीर्थंकरप्रभुनी
वाणी सांभळवा मळी हती, तेमां आवो ज स्वभाव भगवान बतावता हता,
सन्तो ते वाणी झीलीने आवो स्वभाव अनुभवता हता. आवा वीतरागी देव–गुरु
आवे छे. ए रीते तेने परमार्थसहित व्यवहारनुं ने निमित्तनुं पण साचुं ज्ञान छे.
अज्ञानीने एकेय ज्ञान साचुं नथी.
एवी दिव्यता छे के क्षायिक सम्यक्त्व आपे; आनंदमां एवी दिव्यता छे के अतीन्द्रिय
आनंद आपे; प्रकाशशक्तिमां एवी दिव्य ताकात छे के बीजानी अपेक्षा वगर