Atmadharma magazine - Ank 286
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९३ आत्मधर्म : ब्रह्मचर्य–अंक (चोथो) : २प :
सम्यग्दर्शन थती वखते जे स्वसंवेदन थयुं ते प्रत्यक्ष छे, तेमां व्यवहारना
अवलंबननो अभाव छे,–आवो अनेकान्त छे. वात्सल्य, स्थितिकरण, प्रभावना
वगेरे प्रशस्त व्यवहारना उपदेश शास्त्रमां आवे छे, पण ते बधा शुभविकल्पोथी
पार अंदरमां स्वसंवेदन–प्रत्यक्षनी जे परिणति धर्मीने वर्ते छे ते ज मोक्षमार्ग छे.
धर्मात्माने अंदरमां चिदानंद स्वभावना स्वसंवेदननुं जे जोर छे ते स्वयं प्रकाशमान
छे, तेमां बीजा कोईनी मदद नथी, के अस्पष्टता नथी. अहा, आवा
आत्मस्वभावनुं जेने संवेदन थयुं ते हवे परमात्माथी जुदो न रही शके,
स्वसंवेदनना बळे अल्पकाळमां केवळज्ञान प्रगट करीने ते पोते परमात्मा थई जशे,
ने अनंत सिद्ध भगवंतोनी साथे जईने रहेशे.
अरे जीव! आवा जैनदर्शनमां, एटले के सर्वज्ञ परमात्माना पंथमां तुं
अवतर्यो, ने सर्वज्ञदेवे कहेलातारा स्वभावने तुं लक्षमां पण न ले,–तो तने शुं
लाभ? आवो अवसर तारो चाल्यो जशे. पोताना स्वभावमां जे वैभव भर्यो छे
तेने श्रद्धावडे खेंचीने बहार लाव. जेम अंदर पाणी भर्युं छे ते फूवारामां ऊछळे छे,
तेम अंदर चैतन्यनी शक्तिना पाताळमां पाणी भर्युं छे तेमां अंतरद्रष्टि करतां
पर्यायमां ते ऊछळे छे.
आत्मा स्वयं पोते पोताने प्रगट–स्पष्ट–प्रत्यक्ष वेदनमां आवे ने तेमां
परोक्षपणुं के अस्पष्टपणुं न रहे एवो एनो प्रकाश–स्वभाव छे. प्रकाशमां अंधारा
केवा? चैतन्यज्योत जागती प्रकाशवती छे, ते आंधळी नथी के पोते पोताने न
जाणे.
भाई, तारी प्रकाशशक्तिनो तुं भरोसो कर, एनो विश्वास कर ने पर्यायमां
ते न प्रगटे एम बने नहीं. वर्तमान पर्याय अल्पशक्तिवाळी होवा छतां पण
अंतर्मुख थईने अनंत गुणरत्नोथी भरेला आखा अद्भुत दरियाने प्रतीतमां ने
अनुभवमां लई ल्ये–एवी अद्भुत तारी ताकात छे. द्रव्यस्वभावमां अद्भुत
ताकात छे तेनी सन्मुख थतां पर्यायमां पण अद्भुत ताकात प्रगटे छे. पर्याय पोते
एक समयनी छतां अनंत गुणना त्रिकाळी पिंडने कबुले–ए पर्यायनी ताकात केवी?
भगवान! तारी ताकात तो जो. जेनी सामे नजर करतां अमृतनी रेलमछेल थाय
एवा तारा वैभवनी वात अमृतचंद्राचार्य देवे करी छे. भगवाने जेवो आत्मा जोयो
तेवो आत्मा बताव्यो, ने तुं स्वसंवेदनथी प्रत्यक्ष जोई शके एवी तारामां ताकात
छे. समयसारनी शरूआतमां ज आचर्यदेवे कह्युं हतुं के अमे स्वानुभवरूप