: ४४ : आत्मधर्म : ब्रह्मचर्य–अंक (चोथो) : श्रावक : २४९३
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१. जे स्वानुभूतिथी ज जणाय छे अने वाणी तथा मनथी अगोचर छे तथा
आत्माना अनुभवी पुरुषोने जे रम्य छे एवी परमज्योतिनुं हुं वर्णन करुं
छुं.
२. जे कोई जीव, एकत्वस्वरूपने प्राप्त एवा आत्मतत्त्वने जाणे छे, तेनी
अन्य जीवो आराधना करे छे, परंतु ते जीवने आराध्य कोई नथी. (पोते
ज पोतानो आराध्य छे.)
३. जेम उत्तम नौकामां बेठेलो धैर्यवान अने बुद्धिमानपुरुष समुद्रना पाणीथी
भय पामतो नथी तेम आत्माना एकत्वस्वरूपने जाणनारा योगीओ घणा
कर्मोथी पण जराय भय पामता नथी.
४. चैतन्यना एकत्वनी अनुभूति दुर्लभ छे अने ते एकत्वनी अनुभूति ज
मोक्षनी दातार छे; तेथी कोई पण प्रकारे चैतन्यना एकत्वनी अनुभूति
पामीने तेनुं वारंवार चिंतन करवुं जोईए.
प. मोक्ष ए ज साक्षात् सुख छे अने मुमुक्षु जीवोने ते ज साध्य छे. अहीं
संसारमां जे छे ते साचुं सुख नथी–पण दुःख छे.
६. खरेखर आ संसारसंबंधी कांई पण अमने प्रिय नथी; अमने तो
श्रीगुरुना उपदेशथी एक मोक्षपद ज प्रिय छे.
७. आ संसारमां स्वर्गसुख पण मोहना उदयरूपी झेरथी भरेलुं अने
नाशवान छे, तोपछी स्वर्गसिवायना बीजा सुखोनी तो शुं वात करवी?
एवा संसारसुखोथी अमने बस थाव.–हवे अमारे एवा संसारसुख
जोईता नथी.
८. जे मुनिवर आ भवमां शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्माने सदा लक्ष्य करीने रहे छे,
ते श्रेष्ठ बुद्धिमान मुनिवर अन्य भवमां पण ए ज रीते आत्माने लक्ष्य
करीने रहे छे.
९. पोताना एकत्वस्वरूपमां स्थिर थईने जे मुनिश्वरोए वीतरागमार्गमां
प्रस्थान कर्युं छे तेमने मुक्तिसुखनी प्राप्तिमां विघ्न करनार त्रण जगतमां
कोण छे?