: प४ : आत्मधर्म : ब्रह्मचर्य–अंक (चोथो) : श्रावण : २४९३
संतोनी छायामां ज्ञान–वैराग्यनुं सींचन
आत्मज्ञानी अने वैराग्यवंत सन्तोनी मंगलछायामां वसता जिज्ञासुने
जीवनमां ज्ञान–वैराग्यनुं सींचन थतुं ज होय छे. ज्ञानीनी वैराग्यमय
चेष्टाओ, अनुभवथी भरेली तेमनी मुद्रा, तेमनी आत्मस्पर्शी वाणी ने
आराधनामय एमनुं जीवन–ए बधुंय निरंतर पवित्र ज्ञान–वैराग्यनुं पोषक
छे. ए उपरांत कोई कोई वार ज्ञान–वैराग्यनी अत्यंत तीव्रता करावीने
आत्महितने माटे जगाडी द्ये एवा विशिष्ट मंगल प्रसंगो पण संतोना
सान्निध्यमां बन्या करतां होय छे. आवा संत ज्ञानीओना चरणोमां सदैव
रहेवानुं अने एमना पवित्र जीवनने जोवानुं सद्भाग्य मळवुं ए जिज्ञासुने
माटे तो जीवननो सर्वोत्कृष्ट प्रसंग छे. जीवननो ए लहावो लेवा माटे
आत्महितनी भावनाथी घणाय जिज्ञासुओ सोनगढ आवीने संतोना
शरणोमां वसे छे. आ श्रावण वद एकमे पण नव जिज्ञासु बहेनोए आवी
भावनाथी पू. गुरुदेव समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्यप्रतिज्ञा अंगीकार करी. आ
प्रसंगना उपलक्षमां, तेनी अनुमोदनापूर्वक ज्ञान–वैराग्यनुं सींचन करनार
केटलाक वचनामृत अहीं आपीए छीए...आ वचनामृत मुख्यपणे पू.
गुरुदेवना प्रवचनोमांथी के शास्त्रोमांथी तारव्या छे; कोई कोई वचनामृत पू.
बेनश्री–बेननां पण छे.–आ वचनामृत जिज्ञासुओने जरूर ज्ञान–वैराग्यनी
उत्तम प्रेरणा आपशे.–(सं.) * आत्मानी शांति जोईती होय तो संतो तने एक मंत्र आपे छे के तारो आत्मा
शुद्ध परमात्मा छे तेने उपादेय करीने तेनुं ज रटण कर...तेमां ज्ञानने जोड. एमां परम
शांति छे.
* आत्माना सारा भावोनुं सारूं फळ जरूर आवे ज छे. साचा भावनुं साचुं फळ
आव्या वगर रहेतुं नथी. माटे बीजा प्रसंगो भूलीने आत्माना ऊंचा भावने जे रीते
प्रोत्साहन मळे तेवा ज विचारो करवा.
* हे आर्य! श्रुतज्ञानवडे आत्मानो निश्चय करीने स्वसंवेदनथी आत्मानी
भावना कर. आ देहमां आत्मबुद्धि छोड. देह तो छूटवानो छे ज, पण ते छूटवानो प्रसंग
आव्या पहेलां ज्ञानभावना वडे तुं देहना ममत्वने छोड.
* हे आराधक! कोई पण परीषह के कोई पण उपसर्गथी तारुं मन विक्षिप्त थई
गयुं होय तो, नरकादि वेदनाओनुं स्मरण करीने ज्ञानामृतरूप सरोवरमां प्रवेश
कर...एटले तारा मननो विक्षेप