: श्रावण : २४९३ आत्मधर्म : ब्रह्मचर्य–अंक (चोथो) : पप :
मटीने तारो आत्मा परम शांतिने अनुभवशे.
* त्रणलोकने पीडा करनार एवो जे कामदेवरूपी दुष्ट पहेलवान, तेने
जितेन्द्रियजिनवरोए ब्रह्मचर्यरूपी प्रबळ शस्त्रद्वारा जीती लीधो छे. ते जितेन्द्रिय–
जिनवरोने नमस्कार हो.
* ज्यां सुधी विषयो वगरना अतीन्द्रिय आत्मिकसुखनो रस चाखवामां न
आवे त्यां सुधी क्यांक ने क्यांक अन्य विषयोमां सुखबुद्धि रह्या करे छे.
* चैतन्यरसनो अतीन्द्रियस्वाद जेणे चाख्यो, पछी तेने बाह्य कोईपण विषयो
सुहावना लागता नथी, ए विषयो एने बेस्वाद लागे छे. चैतन्यना आनंदरस सिवाय
बीजो कोई रस तेने रुचतो नथी.
* घोरदुःखरूपी मगरमच्छोथी भरेला आ संसारसमुद्रने पार करीने जो
मोक्षकिनारे पहोंचवुं होय तो, रत्नत्रयरूपी श्रेष्ठ नौकानुं शरण ल्यो. रत्नत्रयनौका ज
भवसमुद्रथी तारीने मोक्षनगरीमां पहोंचाडे छे.
* अनंता दरिया भराय एटला पाणीथी पण जेनी तृषा न छीपी तेनी तृषा
एक टीपुं पाणीथी तूटवानी नथी; तेम आ जीवे स्वर्गादि भोग अनंतवार भोगव्या
छतां तृप्ति न थई, तो सडेला ढींगला जेवा आ मानवदेहना भोगोथी तेने कदापि तृप्ति
थवानी नथी; माटे भोग खातर जींदगी गाळवा करतां मनुष्यजीवनमां ब्रह्मचर्य पाळवुं
ने तत्त्वज्ञाननो अभ्यास करवो–ते आ मानवजीवननुं उत्तम काम छे.
* “हे जीव! तने क्यांय न गमतुं होय तो तारो उपयोग पलटावी नांख...ने
आत्मामां गमाड! आत्मामां गमे तेवुं छे....आत्मामां आनंद भर्यो छे एटले त्यां जरूर
गमशे माटे आत्मामां गमाड. जगतमां क्यांय गमे तेवुं नथी पण एक आत्मामां जरूर
गमे तेवुं छे. माटे तुं आत्मामां गमाड.”
* अहो, आ अशरण संसारमां जन्मनी साथे मरण जोडायेलुं ज छे...आत्मानी
सिद्धि न सधाय त्यां सुधी जन्म–मरणनुं चक्र चाल्या ज करवानुं. एवा अशरण
संसारमां देव–गुरु–धर्मनुं ज शरण छे. पू. गुरुदेवे बतावेला चैतन्यशरणने लक्षगत
करीने तेना द्रढ संस्कार आत्मामां पडी जाय–ए ज जीवनमां करवा जेवुं छे.”
* “अंतरना उंडाणथी पोतानुं हित साधवा जे आत्मा जाग्यो....अने जेने
आत्मानी खरेखरी लगनी लागी,....तेनी आत्मलगनी ज तेनो मार्ग करी देशे.
आत्मानी खरेखरी लगनी लागे ने अंतरमां मारग न थाय–एम बने ज नहि
आत्मानी लगनी लागवी जोईए.....तेनी पाछळ