Atmadharma magazine - Ank 286
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: प६ : आत्मधर्म : ब्रह्मचर्य–अंक (चोथो) : श्रावण : २४९३
लागवुं जोईए...आत्माने ध्येयरूप राखीने दिनरात सतत प्रयत्न करवो जोईए...‘केम
मारुं हित थाय’...‘केम हुं आत्माने जाणुं!’ एम लगनी वधारीने प्रयत्न करे तो जरूर
मार्ग हाथ आवे.”
* “जेओ आत्मानुं सुख पाम्या एवा ज्ञानीओने पछी एम थाय के अहो!
जगतमां बधाय जीवो आवुं सुख पामे...आत्मानुं आवुं सुख बधाय पामे. अमारा जेवुं
सुख बधा जीवो पामे..”
* ज्ञानीनी परिणति सहज होय छे....प्रसंगे–प्रसंगे एने भेदज्ञानने याद करीने
गोखवुं नथी पडतुं...पण एने तो एवुं परिणमन ज सहज थई गयुं छे. आत्मामां
एकधारुं परिणमन वर्त्या ज करे छे.”
* आत्माने मुंझवणमां न राखवो पण उत्साहमां राखवो. आत्मानी
आराधनाना भाव राखवाथी तेनुं उत्तम फळ आवे छे. माटे आत्माने उल्लासमां
लावीने पोताना हितना ज विचार राखवा; तेमां ढीला न थवुं. देव–गुरु–धर्म प्रत्ये
भक्ति अने अर्पणताना भाव वधारवा.
* कामाग्निनो ताप एवो छे के, तेनाथी संतप्त पुरुषने मेघसमूहवडे सींचवामां
आवे के पाणीना दरियामां झबोळवामां आवे तोपण तेनो संताप दूर थतो नथी.–परंतु
संतजनोनी शीतल छायामां वैराग्यरूपी जळवडे ते सहेजे शांत थाय छे. (ज्ञानार्णव)
गुरुजनोनी सेवानुं फळ
* आचार्यमहाराज उपदेश आपे छे के हे दुर्बुद्धि आत्मा! गुरुजनोनी साक्षीपूर्वक
अर्थात् गुरुजनोना चरणोमां रहीने तुं तारा वैराग्यने निर्मळ कर, संसार–देह–भोगोमां
लेशपण राग न कर; चित्तरूपी राक्षसने वश कर, अने उत्तम विवेकबुद्धिने धारण कर
केमके आ गुणो गुरुजनोनी सेवाथी ज प्राप्त थाय छे.–(ज्ञानार्णव)
* आ संसारने कामाग्निना अत्यंत तीव्र अनंत संतापोथी तप्त देखीने,
विषयसंग रहित एवा उत्तम योगीजनो हंमेश प्रशमरसना समुद्रना किनारे संयमरूपी
रम्य बगीचानो आश्रय करे छे.– (ज्ञानार्णव)
* कामसर्पना दुर्निवार विषाग्निनी ज्वाळाथी बळबळता आ जगतने जे
महात्माओए शांति पमाडी ते सोळमा तीर्थंकर शांतिनाथ वगेरे जिनभगवंतो अमने
शांति प्रदान करो.–(ज्ञानार्णव)
आराधक जीवोनुं दर्शन आराधना प्रत्ये उत्साह जगाडे छे.