: श्रावण : २४९३ आत्मधर्म : ब्रह्मचर्य–अंक (चोथो) : प९ :
चालो, आराधीए दश धर्म
(१) क्रोधना बाह्यप्रसंग उपस्थित थवा छतां, रत्नत्रयनी द्रढ आराधनाना
बळे क्रोधनी उत्पत्ति थवा न देवी ने वीतराग भाव रहेवो, असह्य प्रतिकूळता आवे
तोपण क्रोधवडे आराधनामां भंग पडवा न देवो ते उत्तम क्षमानी आराधना छे.
(२) निर्मळ भेदज्ञानवडे जेणे आखा जगतने पोताथी भिन्न अने स्वप्नवत्
जाण्युं छे, अने आत्मभावनामां जे तत्पर छे तेने जगतना कोई पदार्थमां गर्वनो
अवकाश क््यां छे?
(३) जे भवभ्रमणथी भयभीत छे अने रत्नत्रयनी आराधनामां तत्पर छे
एवा मुनिराजने पोतानी रत्नत्रयनी आराधनामां लागेला नाना के मोटा दोष
छूपाववानी वृत्ति होती नथी, पण जेम माता पासे बाळक सरळपणे बधुं कही दे तेम
गुरु पासे जईने अत्यंत सरलपणे पोताना सर्व दोष प्रगट करे छे, ने ए रीते अति
सरळ परिणाम वडे आलोचना करीने रत्नत्रयमां लागेला दोषोने नष्ट करे छे. तेमज
गुरु वगेरेना उपकारने सरळपणे प्रगट करे छे.–आवा मुनिवरोने उत्तम आर्जवधर्मनी
आराधना होय छे.
(४) उत्कृष्टपणे लोभना त्यागरूपे जे निर्मळ परिणाम ते उत्तम शौचधर्म छे.
भेदज्ञानवडे जगतना समस्त पदार्थोथी जेणे पोताना आत्माने भिन्न जाण्यो छे, देहने
पण अत्यंत जुदो जाणीने तेनुं पण ममत्व छोडी दीधुं छे, ने पवित्र चैतन्यतत्त्वनी
आराधनामां तत्पर छे–एवा मुनिवरोने कोई पण परद्रव्यना ग्रहणनी लोभवृत्ति थती
नथी, भेदज्ञानरूप पवित्र जळवडे मिथ्यात्वादि अशुचिने धोई नाखी छे, तेओ
शौचधर्मना आराधक छे.
(प) मुनिवरो वचनविकल्प छोडीने सत्स्वभावने साधवामां तत्पर छे; अने
जो वचन बोले तो वस्तुस्वभाव अनुसार स्वपरहितकारी सत्यवचन बोले छे, तेमने
उत्तम सत्यधर्मनी आराधना छे.
(६) अंतर्मुख थईने निजस्वरूपमां जेमनो उपयोग गुप्त थई गयो छे एवा
मुनिवरोने स्वप्नेय कोई जीवने हणवानी वृत्ति के ईन्द्रियविषयोनी वृत्ति होती नथी, ते
उत्तम संयमना आराधक छे.
(७) स्वसन्मुख उपयोगना उग्र प्रतापवडे कर्मोने भस्म करी नाखनारा उत्तम
तपधर्मना आराधक संतोने नमस्कार हो.
(८) हुं शुद्ध चैतन्यमय आत्मा छुं, देहादि कांई पण मारुं नथी, एम सर्वत्र