Atmadharma magazine - Ank 287
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४९३ आत्मधर्म : १७ :
क्षमारूपी मजबुत ढाल
दुष्ट जीवो द्वारा गमे तेटलो उपद्रव थाय परंतु, जेने कदी क्रोध ज उत्पन्न थतो नथी
एवा क्षमावंत धर्मात्माओनुं ते दुष्ट जीवो कांई पण बगाडी शकता नथी. क्षमारूपी उत्तम
ढालनी सामे गमे तेवा उपद्रवनो प्रहार व्यर्थ जाय छे. माटे आत्मानी शुद्धतानी सिद्धि अर्थे
सदा उत्तम क्षमा धारण करवी अने दुष्ट–शत्रु उपर पण कदी क्रोध न करवो, –ते उत्तम पुरुषोनुं
कर्तव्य छे.
अंध
जाणनार तत्त्वने जे नथी जाणतो ते अंध छे.
आ तरफ आवो
चैतन्यतत्त्वने अनुभववामां जे जागृत नथी ने रागना ज अनुभवमां लीन थईने
सूता छे–ऊंघे छे, एवा अंध प्राणीओने जगाडीने आचार्यदेव कहे छे के अरे जीवो! तमे
जागो...ने तमारा चैतन्यमय तत्त्वने रागथी अत्यंत भिन्न देखो रागमां तमारुं निजपद
नथी, तमारुं निजपद चैतन्यमां ज छे, तेने तमे देखो...देखो. राग तरफ अनादिथी दोडी रह्या
छो, त्यांथी पाछा वळो...पाछा वळो, ने आ अंतरना चैतन्यपद तरफ आवो...आ तरफ
आवो. तमारा आ शुद्ध चैतन्यपदने देखीने आनंदित थाओ.
सुखी सन्त
रागी–द्वेषी जीवोने सुख केवुं? सुख तो वीतरागी सन्तोने छे. आत्माथी ज उत्पन्न थयेला
सत्य सुखने अज्ञानी जीवो ओळखी शकता नथी, एटले बाह्य पदार्थोमांथी सुख लेवा मांगे छे.
ब्रह्म–औषधि
भोगोपभोगनी सामग्रीथी जीवने कांई लाभ नथी; ए तो ऊलटा तृष्णा वधारनार
छे. कामज्वरनो नाश ब्रह्मरूपी उत्तम औषधिना सेवन वडे ज थाय छे, विषयभोगो वडे
नहि. माटे सूज्ञ मनुष्योए ब्रह्मपद–सिद्धपद प्राप्त करवा माटे ब्रह्मनुं सेवन करवुं जोईए.
अंतर्मुखी मार्ग
बहिर्मुख कोई भाव वडे आत्मा पमातो नथी. अंतर्मुख शोधवडे ज आत्मा पमाय छे.
सम्यक्त्वादिनो मार्ग अंतर्मुख छे. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–‘तो पामे समकित ते...वर्ते
अंर्तशोध.’ सदगुरुनो उपदेश पामीने जे जिज्ञासु जीव अंर्तशोधमां वर्ते छे ते जीव समकित
पामे छे. सद्गुरुए उपदेशमां पण शुद्धआत्मा बतावीने तेमां अंतर्मुख थवानुं ज कह्युं हतुं. ते
उपदेश–अनुसार जे शिष्य अंतर्मुख थयो ते सम्यग्दर्शन पाम्यो. अंतर्मुख थया विना बीजा
कोई उपाये जीव सम्यग्दर्शन पामतो नथी. बहिर्मुखवृत्ति ते संसार छे, ने मोक्षमार्ग
अंतर्मुखवृत्तिमां छे. अंतर्मुखवृत्ति ते ज करी शके के जेणे गुरुउपदेशअनुसार आत्मस्वरूपनो
यथार्थ निर्णय पोताना ज्ञानमां कर्यो होय.