: १८ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९३
बे मित्र
आत्माने निजस्वरूपनी आराधनामां बे मित्र छे: एक वैराग्य अने बीजुं
तत्त्वज्ञान.–आ बंने एकबीजाना पोषक छे. स्वरूपने साधनार जीवने आ बे मित्र परम
सहायक छे. तेमना वडे ध्यान अने वीतरागी समाधि पमाय छे.
* सम्यग्दर्शन थतां आनंदनो अनुभव थयो, त्यां निःशंकपणे धर्मी जाणे छे के आवो
आखोय आनंद ते हुं छुं. ज्यां पोतानो आनंद पोतामां देख्यो, एनो स्वाद चाख्यो त्यां
परमां क््यांय सुखबुद्धि ज्ञानीने रहेती नथी.
* स्वभाव समजवाना उद्यममां तने थाक लागे छे ने परभावमां तने थाक नथी
लागतो,–पण अरे भाई! स्वभावने साधवो एमां थाक शा? एमां थाक न होय, एमां तो
परम उत्साह होय...ए तो अनादिना थाक उतारवाना रस्ता छे. मुमुक्षुने तो परभावमां थाक
लागे ने स्वभाव साधवामां परम उत्साह जागे.
* अहा, केवो स्वतंत्र अने सुंदर आत्मस्वभाव छे! बस, आवा स्वभावथी आत्मा
शोभे छे, तेमां वच्चे राग के विकल्प क््यां रह्यो? आत्माना वैभवमां विभाव नथी. आवा
स्वभाववाळो ज्ञानमात्र आत्मा ते खरो आत्मा छे. आवा आत्माने श्रद्धे–जाणे–अनुभवे ते
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ने ते मोक्षमार्ग छे.
अडोल मेरु पर्वत
शुद्धताना मेरूपर्वत जेवो जे आ चैतन्यस्वभाव, तेमां वच्चे क््यांय विकार भर्यो नथी.
असंख्यप्रदेशी आत्मा अचलमेरु छे, गमे तेवी प्रतिकूळतामां पण निजस्वरूपथी ते डगे नहि,
तेना गुणनी एक कांकरी चले नहीं, के एक प्रदेश पण हणाय नहीं. जेम मेरूपर्वत एवो स्थिर
छे के गमे तेवा पवनथी पण ते हले नहीं, तेम चैतन्यमेरु आत्मा निजस्वभावमां एवो
अडोल छे के प्रतिकूळताना पवनथी ते घेराय नहीं, तेना कोई गुण के गुणनी परिणति हणाय
नहीं. आवा स्वभावना श्रद्धाज्ञान करनार धर्मात्मा प्रतिकूळ संयोगना घेरा वच्चे पण
स्वभावना श्रद्धा–ज्ञानथी डगता नथी. ते निःशंक जाणे छे के हुं तो ज्ञान छुं.
* रे जीव! आ जराक दुःख पण ताराथी सहन नथी थतुं, तो आना करतां महान
दुःखो जेनाथी भोगववा पडे एवा अज्ञानमय ऊंधा भावोने तुं केम सेवी रह्यो छे?
जो तने दुःखनो खरो भय होय तो ते दुःखना कारणरूप एवा मिथ्यात्वादि ऊंधा
भावोने तुं शीघ्र छोड...ने आनंदधाम एवा निजस्वरूपमां आव. ज्ञानी संतो पासे आव...ते
तने तारुं आनंदधाम देखाडशे.