Atmadharma magazine - Ank 287
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४९३ आत्मधर्म : १९ :
आत्मअनुभवनी
भूमिका अने पर्युषण
[समयसार–कलश प उपरना प्रवचनमांथी: भाद्र सुद ३–४]
– * –
चैतन्यवस्तु आत्माने गुण–गुणीभेद पाडीने ओळखाववी ते व्यवहार छे.
आत्मवस्तुनो अनुभव करवाना उद्यमी जीवने पुद्गलादिथी भिन्न आत्मानुं स्वरूप
लक्षमां लेवा जतां गुण–गुणीभेदनो विचार आवे छे के आत्मा दर्शन–ज्ञान–
चारित्रस्वरूप छे. आटलो भेद ते व्यवहार छे. ने अभेद निर्विकल्प आत्मानुं वेदन ते
निश्चय छे. आत्माने अनुभवनारुं ज्ञान निर्विकल्प छे. अहीं एटलुं विशेष समजवुं के
जिज्ञासुने गुण–गुणीभेदना विचाररूप जे व्यवहार छे ते, ते विकल्पमां अटकवा माटे
नथी पण अभेदवस्तु तरफ जवा माटे छे. ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम कहीने अभेद आत्मा
तरफ लई जवो छे, कांई भेदमां रोकावानुं प्रयोजन नथी...
आत्मा केवो छे?
के जे दर्शन–ज्ञान–चारित्रगुणनो धारक छे ते जीव छे. जुओ, आ सम्यग्दर्शन
माटेनो व्यवहार. बहारमां बीजो कोई व्यवहार न लीधो पण अंतरमां गुण–गुणीभेदनो
विचार छे तेटलो व्यवहार छे, ने ते व्यवहार वच्चे आव्या वगर रहेतो नथी; छतां तेमां
अभेदस्वभाव तरफ जवानुं लक्ष भेगुं छे, तेना जोरे आगळ वधीने सम्यग्दर्शन पामे
छे; कांई भेदनो विकल्प ते सम्यक्त्वनुं साधन थतुं नथी. भेदना कथन के विकल्प वखते
पण, समजनारनो के समजावनारनो आशय तो अभेदस्वरूपने ज लक्षगत करवानो छे.
एवुं लक्ष न करे ने एकला विकल्पने ज परमार्थसाधन मानी ल्ये तेने तो भेदनो विचार
खरेखर व्यवहार पण नथी कहेवातो. अभेदवस्तुनो आशय लक्षमां होय, तेना तरफ
ज्ञाननुं वलण होय तो ज वच्चेना भेदविचारने व्यवहार गणवामां आवे छे.
आनंदकंद चैतन्यवस्तुना साक्षात् अनुभवमां तो कांई विकल्प नथी; वस्तुनो
अनुभव निर्विकल्प छे. छतां भेद केम उपजावो छो? तो कहे छे के गमे तेवा बुद्धिमानने
पण अभेदवस्तुना निर्विकल्प अनुभव पहेलां गुणगुणीभेदनो विचार उपज्या वगर
रहेतो नथी. जुओ, आवो प्रश्न जेने उद्भव्यो ते जिज्ञासु शिष्य निश्चयना एटला
लक्षवाळो छे के अभेदवस्तुना अनुभवमां भेद होय नहि. भेदना विकल्पने ज साधन
मानीने अटके ते