Atmadharma magazine - Ank 287
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 36 of 53

background image
: भादरवो : २४९३ आत्मधर्म : २९ :
* [अनेकान्त ज्ञाननुं फळ स्वभावसन्मुखता] *
“अनेकान्तिकमार्ग पण सम्यक्–एकान्त एवा निजपदनी
प्राप्ति कराववा सिवाय बीजा–अन्य हेतुए उपकारी नथी.”
–– * ––
श्रीमद्राजचंद्रजीना उपरोक्त वाक््यमां रहेला
जैनसिद्धांतना ऊंडा रहस्यने पू. श्री कानजीस्वामीए
प्रवचनमां प्रगट कर्युं छे. सं. २००६ ना माह वद त्रीजे पू.
गुरुदेव ज्यारे मोरबीथी ववाणीया पधार्या ते वखते
‘श्रीमद् राजचंद्र–जन्मस्थानभुवन’ मां थयेलुं आ प्रवचन
छे. तेओश्रीनी ‘जन्मशताब्दि’ नजीक आवी रही छे त्यारे
तेमना वचन उपर तेमनी जन्मभूमिमां ज थयेलुं आ
प्रवचन सर्वे जिज्ञासुओने आनंदित करशे. ‘अनेकान्त’ नुं
रहस्य न समजवाने कारणे समन्वय वगेरेना नामे जे
गोटाळा चाले छे ते दूर करीने, अनेकान्त द्वारा निजपदनी
प्राप्ति करवानुं तात्पर्य समजाव्युं छे. आ प्रवचन घणा वर्ष
पहेलां जोके आत्मधर्ममां आवी गयुं छे, पण घणा
जिज्ञासुओनी मांगणीथी, तेमज गुरुदेव पण कोई कोई
प्रसंगे आ प्रवचनने याद करता होवाथी, अने वर्तमान
श्रीमद् राजचंद्रजीनी जन्मशताब्दिनो प्रसंग होवाथी ते
अहीं फरीने प्रगट करवामां आव्युं छे. (ब्र. ह. जैन)
श्रीमद् राजचंद्रनुं आंतरिक जीवन हतुं; तेने समजवा माटे अंतरनी पात्रता
जोईए. बाह्य संयोगमां ऊभा होवा छतां धर्मात्मानी अंतरस्वभावनी द्रष्टि कंईक जुदुं
काम करती होय छे. संयोगद्रष्टिथी जुए तो तेने स्वभाव न समजाय. बाह्य संयोग तो
पूर्वना प्रारब्ध निमित्ते होय पण धर्मीनी द्रष्टि ते संयोग उपर होती नथी, अंतरमां
आत्मानो स्वपर