: ३० : आत्मधर्म : भादरवो : २४९३
प्रकाशक स्वभाव शुं छे, तेना उपर धर्मीनी द्रष्टि छे. एवी द्रष्टिवाळा धर्मात्मानुं आंतरिक
जीवन आंतरिक द्रष्टिथी समजाय तेम छे; संयोग उपरथी तेनुं माप थतुं नथी. अंतरना
चैतन्यपदनो महिमा वाणीथी अगोचर छे. ते बतावतां अपूर्व अवसरमां कहे छे के–
जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां,
कही शक््या नहि ते पण श्री भगवान जो...
तेह स्वरूपने अन्य वाणी तो शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो...
चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा स्वसंवेदनथी जणाय तेवो छे; पोते स्वसंवेदनथी
जाणे तो देव–गुरु–शास्त्रने निमित्त कहेवाय छे. जो पोते अंतरमां आत्माने जाणवानो
प्रयत्न न करे तो देव–गुरु–शास्त्रनी वाणीना आशयने पण यथार्थपणे जाणी शके नहि
अने तेने देव–गुरु–शास्त्र निमित्त कहेवाय नहीं.
तळावनी उपली सपाटी बहारथी सरखी लागे, पण अंदर ऊतरीने तेना
ऊंडाणनुं माप करतां ऊंडाईमां केटलुं अंतर छे ते जणाय छे. तेम ज्ञानी अने अज्ञानीना
वचनो उपरटपके जोतां सरखां होय तेवां लागे, पण अंतरनुं ऊंडुं रहस्य जोतां तेमना
आशयमां केवो आंतरो छे ते समजाय.
ज्ञानी अने अज्ञानीनी वेपार, खावुं पीवुं वगेरे बहारनी क्रियाओ सरखी देखाय
अने बाह्यमां वस्त्रादि संयोगनो अभाव पण कदाच सरखो होय, परंतु तेमनी अंतरनी
दशामां आकाश–पाताळ जेटलुं अंतर छे, तेनुं माप बहारथी थई शके नहीं. ज्ञानीने
पूर्व– प्रारब्धथी लाखोना वेपारनो संयोग वर्ततो होय अने अज्ञानीने कदाच
पूर्वप्रारब्धथी बाह्य संजोगो ओछा होय, पण अंतरमां ‘शरीरादि जडनी क्रिया हुं करुं’
एवुं परमां अहंपणुं अज्ञानीने होय छे, आत्मानो अनादि–अनंत ज्ञानस्वभाव
निजपदस्वरूप छे, तेनुं तेने भान होतुं नथी ने पुण्य–पापमां तथा परमां अहंपद वर्ततुं
होय छे. तेथी ते अज्ञानीने क्षणे क्षणे अधर्म थाय छे. अने ज्ञानीने बाह्य संयोग घणा
होवा छतां, तेना अंतरमां एक रजकणनुं पण स्वामीपणुं नथी, अंतरंग
चैतन्यस्वभावना निजपद उपर तेमनी द्रष्टि पडी छे एटले तेमनी परिणति क्षणे क्षणे
निजपद तरफ वळती जाय छे. धर्मी–अधर्मीनां माप बहारथी आवे तेम नथी.
श्रीमदे पोताना लखाणोमां ज्यां त्यां वारंवार निजस्वरूपनी प्राप्तिनो पोकार
कर्यो छे. ‘मूळमार्ग’ मां पण कह्युं छे के:–
ते त्रणे अभेद परिणामथी रे,
ज्यारे वर्ते ते आत्मारूप...मूळ
०
तेह मारग जिननो पामियो रे,
किंवा पाम्यो ते निजस्वरूप...मूळ
०
सर्वज्ञनो मार्ग अने निजपदनो मार्ग जुदा नथी. ज्यारे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र