निजस्वरूपने पाम्यो एम कहो,–बंने जुदा नथी.
न आव्युं, ते पदना महिमाने अन्य वाणी तो शुं कहे? ‘अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते
ज्ञान जो’ वाणीथी अगोचर अने पोताना स्वानुभवथी गोचर छे. आत्मानुं निजपद
तो पोताना स्वसंवेदनज्ञानथी ज वेदावा योग्य छे–जणावा योग्य छे–प्राप्त करवा योग्य
छे–प्रगट करवा योग्य छे–अनुभव करवा योग्य छे.–ए प्रमाणे निजपदनो महिमा करीने
त्यार पछी छेल्ली कडीमां ते पदनी प्राप्ति माटे भावना करतां कहे छे के–
गजा वगर ने हाल मनोरथरूप जो.
तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो,
प्रभु आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो... अपूर्व
एवा निजपदनी प्राप्ति कराववा सिवाय बीजा अन्य हेतुए उपकारी नथी.’–आ एक
वाक््यमां श्रीमदे सर्वज्ञना हृदयनो मर्म गोठव्यो छे, बधा शास्त्रोनो छेवटनो सार आमां
बतावी दीधो छे, पात्र जीव होय ते तेनुं रहस्य समजी जाय. श्रीमद्ना वचनो पाछळ एवो
व्यवहार व्रत, तप, उपवासादि बाह्यक्रियामां, तेम ज बाह्य विधि–निषेधना आग्रहमां
अटकी रहे छे ने तेमां ज सर्वस्व मानी बेसे छे; परंतु ते व्रतादिमां पर तरफ जती
लागणीनो भाव तो शुभराग छे,–तेमां ज जे धर्म मानीने अटकी पड्या छे तेने श्रीमद् आ
एक वाक््यद्वारा अनेकान्तमार्गनुं रहस्य समजावीने अंतरमां वाळवा मांगे छे. आ एक
लीटीमां केटलुं रहस्य रहेलुं छे तेनुं माप बहारथी न आवे. तेनुं द्रष्टांत–
देख्या ने बहारना एकलां फोतरां जोयां. एटले पेली बाई फोतरां खांडती लागे