चोखा क््यांथी नीकळे? ते बाईए मात्र बाह्य अनुकरण कर्युं. तेम अज्ञानी जीवो
पण ज्ञानीओनी ऊंडी अंतरद्रष्टिने ओळखता नथी अने मात्र तेमना शुभरागनुं
अने बहारनी क्रियानुं अनुकरण करे छे. ज्ञानीओने अंतरमां पुण्य–पापनी
लागणीओ उपर द्रष्टि होती नथी, अने जड शरीरनी क्रिया मारे लीधे थाय छे–एम
तेओ मानता नथी, तेमनी द्रष्टिनुं जोर अंतरमां निजपद उपर होय छे के हुं
अनादिअनंत ध्रुवस्वभावी ज्ञायकमूर्ति आत्मा छुं.– एवी अंतरंगद्रष्टिने तो
अज्ञानी जाणतो नथी, अने अवस्थामां वर्तती पुण्य–पापनी लागणीओने तथा
देहादिनी क्रियाने जुए छे, अने तेनाथी ज धर्म थतो हशे एम ते माने छे; एटले
फोतरां खांडनार बाईनी माफक, ते पण फोतरां जेवा शुभरागमां ने देहादिनी
क्रियामां अटकी रहे छे. ज्ञानीओ तो पोताना अंतरमां स्वभाव तरफनुं वलण करी
रह्या छे, स्वभावनी श्रद्धा, ज्ञान ने एकाग्रतारूपी कस तो अंदरमां उतरे छे
(अर्थात् आत्मामां अभेद थाय छे), तेनुं फळ बहारमां देखातुं नथी; अस्थिरताना
कंईक रागने लीधे पूजा–भक्ति–व्रत वगेरे शुभराग तेम ज वेपार–धंधा वगेरे
संबंधी अशुभराग थाय तेने ज्ञानी फोतरां समान जाणे छे तथा देह–मन–वाणीनी
क्रिया तो जडनी छे; ते बंनेथी भिन्न पोताना निजस्वभाव उपर ज्ञानीनी द्रष्टि छे.
आवी द्रष्टिने लीधे धर्मीने क्षणे क्षणे अंतरमां निजपद तरफनुं वलण छे. वच्चे
पुण्य–पापनी लागणी ऊठतां निमित्तो उपर लक्ष जाय छे अने देहादिनी क्रिया तेना
कारणे स्वयं थती होय छे, तेने ज अज्ञानी जुए छे. परंतु ज्ञानीने अंतरनी ऊंडी
द्रष्टिने लीधे क्षणे क्षणे धर्म थाय छे, तेने ते जोतो नथी. ओळखतो नथी.
अनेकांतमार्ग कह्यो छे ते सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति माटे ज उपकारी छे.
अनेकांत एटले शुं? वस्तुमां नित्य–अनित्य वगेरे बब्बे परस्पर विरुद्ध धर्मो
रहेला छे, तेनुं नाम अनेकांत छे. आत्मा स्वभावे शुद्ध छे, अवस्थाए वर्तमान
अशुद्ध छे–ईत्यादि प्रकारे बब्बे पडखां जाणीने एक स्वभाव तरफ वळवुं ते ज
प्रयोजन छे, अने तेनुं नाम ‘सम्यक् एकांत’ छे. आत्मा स्वभावे शुद्ध अने
अवस्थाए अशुद्ध–एम बब्बे पडखां जाणीने तेना विकल्पमां अटकी रहे अने
शुद्धस्वभाव तरफ वळे नहीं, तो तेने निजपदनी प्राप्ति थाय नहीं, अने तेणे खरेखर
अनेकांतने जाण्यो न कहेवाय.