Atmadharma magazine - Ank 287
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 40 of 53

background image
: भादरवो : २४९३ आत्मधर्म : ३३ :
आत्मा ध्रुव नित्य स्वभावे ज्ञाताद्रष्टा आनंदस्वरूप छे, अने क्षणिक अनित्य
पर्यायमां पुण्य–पाप विकार छे; ए रीते एक शुद्ध चैतन्य पडखुं अने बीजुं अशुद्ध पडखुं
–एम बंने पडखांने जाणवा ते अनेकांत छे; अनेकांत ते सर्वज्ञभगवाननो मार्ग छे,
सर्वज्ञनो मार्ग एटले निजपदनो मार्ग. त्रिकाळी स्वभावे शुद्ध अने वर्तमान पर्याये
अशुद्ध –एवुं अनेकांतनुं ज्ञान अंर्तस्वभावसन्मुख थईने निजपदनी प्राप्ति करवा
सिवाय बीजा कोई हेतुए उपकारी नथी. जुओ, आमां विचारवा जेवुं ऊडुं रहस्य छे.
आत्मा त्रिकाळी स्वभावे शुद्ध छे ने वर्तमान अवस्थामां अशुद्ध छे. क्षणिक
अवस्थानी अशुद्धता वखते जो आखो आत्मा ज तद्न अशुद्ध थई गयो होय,–स्वभावे
पण शुद्ध न रह्यो होय, तो अशुद्धता टळीने शुद्धता आवशे क््यांथी? प्राप्तनी प्राप्ति होय
एटले के जो शक्तिरूप शुद्धता होय तो पर्यायमां व्यक्त थाय; जो शुद्धता न ज होय तो
प्रगटे नहीं. माटे शक्तिरूपे आत्मानो स्वभाव शुद्ध छे, अने प्रगट अवस्थामां अशुद्धता
छे. जो अवस्थामां अशुद्धता न होय तो वर्तमानमां शुद्धता होय एटले प्रगट
परमानंदनो अनुभव होवो जोईए. माटे आत्मा एकांत शुद्ध के अशुद्ध नथी पण
द्रव्यस्वभावे शुद्ध अने पर्यायमां अशुद्ध–एवो अनेकांत छे. आत्मसिद्धिमां कह्युं छे के–
केवळ होत असंग जो, भासत तने न केम? असंग छे परमार्थथी, पण निज भाने तेम.
आत्मा जो सर्वथा पुण्य–पाप विनानो तथा कर्मना निमित्त वगरनो असंग होत
तो तने तेना आनंदनो व्यक्त अनुभव थया विना न रहेत. पर निमित्तना संगे
आत्मानी अवस्थामां जो बिलकुल विकार न होत तो असंग चैतन्यना परम आनंदनो
अनुभव वर्ततो होत. माटे अवस्थामां विकार अने निमित्तनो संग छे. छतां ‘असंग छे
परमार्थथी’–अंर्तस्वभावनी द्रष्टिथी जोतां सम्यक् चिदानंद प्रभु असंग छे. जो परमार्थे
असंग न होय तो कदी असंग थाय नहीं. अने जो व्यवहारे पण असंग होत तो
पूर्णानंदनो अनुभव व्यक्त होत. जे पुण्य–पाप, क्रोध वगेरेनी लागणीओ थाय छे ते
कांई जडने थती नथी, पण चेतननी अवस्थामां पोते ज करे छे. जो चेतन शुद्ध ज होय
तो भूल कोनी? अने संसार कोनो? जो चेतननी अवस्थामां भूल न होय तो आ
समजवानो उपदेश कोने? आत्मा शक्तिरूपे त्रिकाळ शुद्ध परिपूर्ण होवा छतां वर्तमान
अवस्थामां मलिन थई रहेलो छे. जो ते मलिनता न होत तो अत्यारे परमात्मा होत.
वळी जो अशुद्धता ज तेनुं स्वरूप होत तो ते कदी टळी शकत नहीं. परमार्थे आत्मा
असंगशुद्ध छे, अने निजभाने पर्यायमां ते प्रगटे छे.
–आ रीते, वर्तमानद्रष्टिए आत्मा