Atmadharma magazine - Ank 287
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४९३ आत्मधर्म : ३ :
तारा सम्यक्त्वादि–कार्यना
कारणने क््यां शोधीश?

आत्माना अंतरमां जे वैभव भर्यो छे तेनुं
आ वर्णन छे. अरे, चैतन्यदरबारमां केवो अनंत
रत्नोनो सागर भर्यो छे! केवो अचिंत्य
चैतन्यवैभव अंदर भर्यो छे! ते सन्तोए बताव्यो
छे. अहो, आवा निजवैभवने कोण न देखे? कोण न
ल्ये? कोण न अनुभवे? हे जीवो! तमे तमारा
आवा आत्मवैभवने देखो, अनुभवो; तमने परम
आनंद थशे.
आ ज्ञानस्वरूपी आत्मद्रव्य एवुं छे के अन्य वडे ते करायेलुं नथी एटले
‘अकार्य’ छे; अने पोते कोई अन्यने करतुं नथी एटले ‘अकारण’ छे. आ रीते
ज्ञानस्वभावी आत्मा अकार्यकारणपणारूप धर्मथी सहित छे. जेम आत्मद्रव्य परना
कार्य–कारणपणा वगरनुं छे तेम तेना सर्वे गुणो ने पर्यायो पण पर साथेना कार्य–कारण
वगरनां छे.
आत्मा परनुं कारण नथी ने परनुं कार्य पण नथी. आत्मानो स्वभाव एवो
स्वाधीन छे के परथी करातो नथी; विकल्प कर्ता थईने आत्माना स्वभावनुं कार्य करे–
एवो आत्मा नथी. तेमज आत्मा कारणरूप थईने रागने करे–एवो पण तेनो स्वभाव
नथी. आत्मानो स्वभाव एवा अकार्यरूप छे के अन्य कोई कारणोनी अपेक्षा तेने नथी.
निजस्वभाव सिवाय अन्य कोई कारणोने ते पोताना कारणपणे स्वीकारतो नथी.
तेमज कर्म वगेरे अन्य पदार्थनुं कारण थाय एवुं कारणपणुं पण आत्माना स्वभावमां
नथी. त्रिकाळीस्वभावमां तो नथी ने ते स्वभाव तरफ झुकेली निर्मळपर्यायमां पण कोई
परभावो साथे कारण–कार्यपणुं नथी. आत्मानी कोई शक्ति (गुण) पोते जो विकारनुं
कारण थाय तो तो विकार सदा थया ज करे.–पण एम नथी.