लोच करीने दीक्षित थता हशे त्यारे ए देखाव केवो हशे!! राम तो मुर्छित थई जाय
छे, प्रजाजनो हा–हाकार करता रडे छे...ने सीताजी संसारथी उदास थईने अर्जिका
बने छे. सीताजी प्रत्येना रागथी मुर्छित थया ते वखतेय रामचंद्रजी अंतरनी
आत्मशक्तिना भानमां छे, ते वखतेय निजशक्तिने भूल्या नथी, ने मोहनो जराक
विकल्प वर्ते छे तेने आत्मशक्तिनुं कार्य खरेखर मानता नथी; ते वखतेय तेमनो
आत्मा निर्मळभावोना ज कारण–कार्यरूपे परिणमी रह्यो छे.–आ तो मोटा प्रसिद्ध
पुरुषोनां नाम लईने द्रष्टान्त आप्या. बाकी तो बधाय धर्मात्माना अंतरमां आवुं
ज परिणमन वर्ती रह्युं छे. भगवान आत्मा अंर्तद्रष्टिथी द्रव्य–गुण–पर्यायनी
एकतारूप परिणम्यो त्यां स्वकारणथी निर्मळपर्याय ज परिणमे छे; तेमां बीजा कोई
साथे कारण–कार्यपणुं नथी. निर्मळभावरूपे परिणमतो ते आत्मा ज्यां विकारकार्यनो
पण कर्ता नथी त्यां परनो कर्ता तो क्यांथी थाय? आत्माने परनी साथे कारण–
कार्यपणुं तो त्रणकाळमां नथी, मात्र प्र्रमाता–प्रमेयपणानो संबंध छे ते वात हवेनी
(पंदरमी) शक्तिमां बतावशे.
भान थतां परना कार्यमांथी द्रष्टि छूटी जाय छे, ने स्वकार्यना कारणरूप
निजस्वभाव उपर द्रष्टि जाय छे एटले सम्यग्दर्शन वगेरे निर्मळ कार्य थाय छे.
भाई! आत्मानी शान्ति माटे तारा आवा स्वभावने द्रष्टिमां ले. तारी शांति माटे
कोई परद्रव्य तने कारण थाय–एम नथी. तारो आनंदस्वभाव ज तारी शांतिनुं
कारण छे, तारो आनंदस्वभाव दुःखने के रागने उत्पन्न करे नहि, तेमज राग तारा
आनंदने उत्पन्न करी शके नहीं. तारो आनंद, तारी शांति के ज्ञान ते कार्यमां तारी
बीजा कोईनी जरूर नथी. तारी शांति वगेरे परना अकार्य–अकारणरूप छे, परनुं
जरापण कार्य–कारणपणुं तेमां नथी.
अनुभव्यो कहेवाय. शक्ति जो निर्मळ पर्यायरूप न परिणमे