Atmadharma magazine - Ank 288
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : आसो : र४९३
(अनेकान्तज्ञाननुं फळ स्वभावसन्मुखता)
(लेखांक बीजो गतांकथी चालु)
“अनेकान्तिकमार्ग पण सम्यक्–एकान्त एवा निजपदनी
प्राप्ति कराववा सिवाय बीजा–अन्य हेतुए उपकारी नथी.”
श्रीमद् राजचंद्रजीना उपरोक्त वाक्यमां रहेला जैनसिद्धांतना ऊंडा रहस्यने पू.
श्री कानजीस्वामीए प्रवचनमां प्रगट कर्युं छे. सं. २००६ ना माह वद त्रीजे पू.
गुरुदेव ज्यारे मोरबीथी ववाणीया पधार्या ते वखते ‘श्रीमद् राजचंद्र–
जन्मस्थानभुवन’ मां थयेलुं आ प्रवचन छे. आगामी मासमां तेओश्रीनी
‘जन्मशताब्दि’ आवी रही छे त्यारे तेमना वचन उपर तेमनी जन्मभूमिमां ज थये
आ प्रवचन सर्वे जिज्ञासुओने आनंदित करशे. ‘अनेकान्त’ नुं रहस्य न समजवाने
कारणे समन्वय वगेरेना नामे जे गोटाळा चाले छे ते दूर करीने, अनेकान्त द्वारा
निजपदनी प्राप्ति करवानुं तात्पर्य समजाव्युं छे. तेमां, शुद्धता–अशुद्धता, तथा
उपादान–निमित्त ए बंने प्रकारनुं अनेकान्तज्ञान क्यारे साचुं कहेवाय ते वात
गंताकमां आवी गई छे. हवे निश्चय–व्यवहार तथा द्रव्य–पर्याय संबंधी अनेकान्तनुं
रहस्य समजावीने, तेनुं ज्ञान क््यारे साचुं थाय ते बतावे छे. (ब्र. ह. जैन)
अखंड चैतन्यस्वभाव तरफ वळतां पहेलां साचा देव–गुरु–शास्त्र केवा छे ने तेओ
आत्मानुं स्वरूप केवुं कहे छे?–एवो परसन्मुख विचार होय छे, तेमां साथे शुभराग छे;
पण ते शुभराग तरफनुं लक्ष छूटीने भगवाने बतावेला पोताना अखंड ज्ञायकस्वभाव
तरफ वळ्‌या विना निश्चय–व्यवहार बंनेनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी. निश्चयस्वभाव तरफ
ढळतां रागादि व्यवहारनो आश्रय तूटे त्यारे अनेकांत थाय छे. अखंड ज्ञानस्वभाव ते
निश्चय, अने शुभराग ते व्यवहार निश्चयज्ञानस्वभाव तरफ वळतां स्व–परप्रकाशक
ज्ञानसामर्थ्य खील्युं, ते ज्ञान शुभरागने व्यवहार तरीक्े जाणी ल्ये छे.