अनेकांतनुं प्रयोजन छे. अभेद स्वभाव तरफ ढळवुं एम कहो के ‘सम्यक् एकांत’ कहो,
तेमां मोक्षमार्ग आवी जाय छे.
अहीं
कल्याण छे एम समजाव्युं छे. दया, दान के व्रत वगेरे शुभराग ते दुःख छे–आकुळता छे.
अने हिंसा, विषय–कषाय वगेरे अशुभ लागणीओ तीव्र दुःख छे–आकुळता छे. ते
नथी. अवस्थामां पुण्य–पाप ने अज्ञान छे, तेनी जो ना पाडे तो समजवानो प्र्रयत्न
करवानुं रहे नहि; अने त्रिकाळी स्वभावमां ते पुण्य–पाप के अज्ञान नथी–एम जो न
समजे तो त्रिकाळी स्वभावना आश्रय वगर पुण्य–पाप वगेरे टळे नहीं. व्यवहार,
निमित्त ने राग छे तेनी ज्ञानीओ ना नथी पाडता, पण तेना वडे धर्म थशे, के ते करतां
करतां धर्म थशे–एम मानवानी ना पाडे छे.
परमात्मानी सभामां जईने दिव्यध्वनि सांभळ्यो पण अंतरमां निजपदने पामवानी
लायकात पोते प्रगट करी नथी. निजपदने भूलीने परपदमां ज अटकी गयो छे. कां तो
आत्माने एकांत शुद्ध ज मान्यो, कां सर्वथा अशुद्ध मानी लीधो, कां निमित्तथी कल्याण
थशे एम मान्युं, कां व्यवहारना आश्रयथी लाभ मानीने रागमां ज अटक्यो. पण राग
निश्चय छे; पर तरफ ढळतो व्यवहार छे. वस्तुनो स्वभाव ते उपादान छे अने पर
संयोग ते निमित्त छे.