: आसो : २४९३ आत्मधर्म : १३ :
(४) द्रव्य तथा पर्याय एवा बे बोल छे; तेमां द्रव्यद्रष्टि प्रगट कर तो पर्यायनुं
यथार्थ ज्ञान थाय.
आ प्रमाणे शुद्ध अने अशुद्ध, उपादान अने निमित्त, निश्चय अने व्यवहार तथा
द्रव्य अने पर्याय–एवा चार जोडकाना आठ बोल थया; आ आठे बोल जाणवा जेवा
छे, पण ते जाणीने एक स्वभाव तरफ वळ्या विना अनेकांतनुं साचुं ज्ञान थतुं नथी.
शुद्धस्वभाव कहो, उपादान कहो, निश्चय कहो के द्रव्य कहो,–ते तरफ ढळ्या वगर
अशुद्धतानुं–निमित्तनुं–व्यवहारनुं के पर्यायनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी. अनेकांतनुं फळ
सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति छे–एटले सम्यक् एकांत एवा निजपद तरफ
झुक्या वगर यथार्थ अनेकांत होय नहीं.
‘मूळ मार्ग रहस्य’ काव्यमां श्रीमद् कहे छे के–
छे देहादिथी भिन्न आत्मा रे, उपयोगी सदा अविनाश...मूळ
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एम जाणे सद्गुरु–उपदेशथी रे, कह्युं ज्ञान तेनुं नाम खास...मूळ
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अंर्तस्वभाव तरफ वळीने ज्ञाता आनंदकंद त्रिकाळ उपयोगस्वरूप अविनाशी
आत्मानुं ज्ञान करे तेने ज अहीं सम्यग्ज्ञान कह्युं छे. पर्याय अने निमित्त वगेरेने ज
जाणवामां रोकाय पण स्वसन्मुख थईने शुद्ध स्वभावने न जाणे तो सम्यग्ज्ञान थाय नहीं.
वळी सम्यग्दर्शनसंबंधमां कहे छे के–
जे ज्ञाने करीने जाणीयुं रे, तेनी वर्ते छे शुद्ध प्रतीत...मूळ
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कह्युं भगवंते दर्शन तेहने रे, जेनुं बीजुं नाम समकीत...मूळ
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ईन्द्रियोथी के रागथी जाणवानी वात न करी, पण ज्ञानथी जाणवानी वात करी.
इंद्रियो अने रागना अवलंबन वगर अतीन्द्रिय ज्ञानवडे जे आत्मस्वभावने जाण्यो
तेनी शुद्ध प्रतीति वर्ते छे, तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. पहेलां निमित्तरूपे ज्ञानीनो उपदेश
होय छे खरो, पण ते उपदेशवडे आत्मा जणाय छे एम नथी. ज्ञानीनो उपदेश
सांभळीने पछी स्वसन्मुख अतीन्द्रियज्ञानवडे पोते एम समज्यो के अहो! हुं आत्मा
अखंड उपयोगी अविनाशी छुं. ते निमित्तथी जाण्युं नथी, रागथी जाण्युं नथी,
व्यवहारथी के भेदथी जाण्युं नथी, पण स्वतरफ वळता ज्ञानथी जाण्युं छे. जुओ,
श्रीमद्ना आ काव्यमां केटलुं रहस्य भर्युं छे! कोई रेकर्डनी जेम मात्र शब्द बोली जाय,
पण तेथी कांई अंदरनो आशय समजमां आवे नहि. जेम रेकर्ड बोले छे पण ते रेकर्डने
हृदय नथी, तेम अज्ञानीओ भाषा गोखीने रेकर्डनी जेम बोली जाय, पण अंदरमां तेने
भावनी समजण नथी. पहेलां अज्ञानपणे बीजी रीते जाणवानुं मानतो हतो.–शास्त्रथी,
ईन्द्रियोथी के रागथी