Atmadharma magazine - Ank 288
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९३ आत्मधर्म : १७ :
निश्चयनो ज बताव्यो छे. ज्ञान करवा माटे पर चीज छे खरी, पण कल्याण तो स्वना
आश्रये ज थाय छे. अभेदना आश्रये–निश्चयना आश्रये–शुद्धद्रव्यना आश्रये–अथवा तो
शुद्ध उपादानना आश्रये कल्याण छे, ए सिवाय भेदना आश्रये–व्यवहारना आश्रये–
पर्यायना आश्रये के निमित्तना आश्रये कल्याण नथी. शास्त्रोमां निश्चय–व्यवहार वगेरे
बब्बे पडखानुं ज्ञान कराव्युं छे, पण ते बे पडखांने जाणीने एक तरफ वळवा माटे आ
उपदेश छे.
बाह्यसंयोग अने निमित्तो हो भले, पण ते आत्माना धर्मनुं साधन नथी. अरे
प्रभु! तुं चैतन्यभगवान एवो नमालो नथी के तने पर संयोगनी अनुकूळताए लाभ
थाय. तारा कल्याणने माटे परना आश्रयनी जरूर पडे एवुं तारुं स्वरूप नथी. निमित्त
भले हो पण ते तारा आत्माथी पर छे. अने निमित्तने लक्षे व्यवहार–शुभराग–थाय ते
पण तारा स्वभावथी पर छे, ए प्रमाणे जाणीने स्वभाव तरफ वळवुं ते ज
परमात्मपदनो उपाय छे. आ प्रमाणे सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय
अन्य हेतुए अनेकांत उपकारी नथी. पर्यायमां अशुद्धता छे खरी, पण तेना आश्रये
निजपदनी प्राप्ति थती नथी. स्वभाव तरफ ढळ्‌या विना, पर्यायना आश्रये कल्याण
थाय–एवुं अनेकांतमार्गमां एटले के वस्तुना स्वभावमां छे ज नहीं. तुं तने समजीने,
तारा स्वभावनो महिमा कर अने तारा स्वभाव तरफ वळ–ए ज कल्याणनो मार्ग छे.
निजपदनी प्राप्ति एटले के परमात्मदशानी प्राप्ति स्वना आश्रये थाय छे, परना आश्रये
निजपदनी प्राप्ति थती नथी; उपादानना आश्रये निजपदनी प्राप्ति थाय छे, निमित्तना
आश्रये निजपदनी प्राप्ति थती नथी.
निजपदनी प्राप्ति जीवथी थई शके छे, तेनो आ उपदेश छे. अनंतकाळथी जीवे
पोताना निजपदनी संभाळ करी नथी, अने निमित्त तथा व्यवहारना आश्रये कल्याण
मानीने परपदनी ज प्राप्ति करी छे. स्वपद–चैतन्यस्वभावने भूलीने परना आश्रये तो
परपदनी–रागनी–कर्मनी ने शरीरना संयोगनी प्राप्ति थाय छे, ने चार गतिना अवतार
टळता नथी. राजपद हो के देवपद हो ते बधा परपद छे, अने तेना कारणरूप पुण्यभाव
पण परपद छे, चैतन्यभगवान आत्मानुं ते पद नथी. निजपद तो ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव
छे, तेना आश्रये श्रद्धा–ज्ञान–रमणता करतां परमात्मपदनी प्राप्ति थाय छे. ए सिवाय
परना आश्रये राग ऊठे तेनाथी परपदनी प्राप्ति थाय छे. अनेकांत पोताना
स्वभावपदनी प्राप्ति अर्थे ज उपकारी छे.–आवुं अनेकान्तनुं रहस्य छे.
श्रीमद् राजचंद्रनुं जीवन एकदम आंतरिक हतुं. तेमने संयमदशा थई न हती
पण अंतरस्वभावनी द्रष्टि प्रगटी हती, पूर्ण–