छेवटे तेमनो पोकार छे के–
केवळज्ञाननी ने अनंत सुखनी पर्यायो सादि–अनंतकाळ प्रगट्या करे तेवी ताकात भरी
छे, एवो परिपूर्ण आत्मा द्रष्टिमां तो आव्यो छे– प्रतीतिमां आव्यो छे, स्वभावनी
निःशंकता प्रगटी छे; अने ए स्वभावना आश्रये अल्पकाळे संसारनो अंत करीने
मोक्षदशा प्रगट करवानी भावना हती,–‘घणी त्वराथी प्रवास पूरो करवानो हतो, त्यां
वच्चे सहरानुं रण संप्राप्त थयुं. माथे घणो बोजो रह्यो हतो ते आत्मवीर्ये करी जेम
अल्पकाळे वेदी लेवाय तेम प्रघटना करतां पगे निकाचित उदयमान थाक ग्रहण कर्यो’
वात साथे लीधी छे. अंतरमां सम्यक् एकांत एवा निजपद उपर द्रष्टि पडी छे, अने
स्वभाव तरफ पुरुषार्थनो वेग वळ्यो छे, पण स्वभावमां वळतां वळतां वच्चे वीर्य
अटकी गयुं, पूर्णताना पुरुषार्थमां न पहोंची शकायुं, एटले एकाद भव बाकी रह्यो, तेनुं
ज्ञान वर्ते छे; छतां स्वभावनी निःशंकता जाहेर करतां कहे छे के–
ए द्रष्टिना जोरे स्वरूपस्थिरता प्रगट करीने अल्पकाळे पूर्णदशा प्रगट करवाना छीए.
‘स्वात्मवृत्तांत’ मां निःशंकतापूर्वक कहे छे के–
तेथी देह एक ज धारीने जाशुं स्वरूप स्वदेश रे...धन्य रे.
मनुष्य थईने पूर्ण स्वरूपने प्रगट करशुं–तेमां त्रणकाळ त्रणलोकमां शंका पडती नथी.
‘अपूर्व अवसर’ नी छेल्ली कडीमां पण आ संबंधमां लखे छे के–
तो पण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभु आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो.....