Atmadharma magazine - Ank 288
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : आसो : २४९३
स्वभाव–प्राप्ति माटेनो प्रयत्न वर्ततो हतो.....अंदरथी भगवान आत्मा जाग्यो हतो.
छेवटे तेमनो पोकार छे के–
‘घणी त्वराथी प्रवास पूरो करवानो हतो’ आ संसारनो अंत लावीने
निजपदनी पूर्णतानी शीघ्र प्राप्ति करवानी हती, पूर्णतानी ज भावना हती; आत्मामां
केवळज्ञाननी ने अनंत सुखनी पर्यायो सादि–अनंतकाळ प्रगट्या करे तेवी ताकात भरी
छे, एवो परिपूर्ण आत्मा द्रष्टिमां तो आव्यो छे– प्रतीतिमां आव्यो छे, स्वभावनी
निःशंकता प्रगटी छे; अने ए स्वभावना आश्रये अल्पकाळे संसारनो अंत करीने
मोक्षदशा प्रगट करवानी भावना हती,–‘घणी त्वराथी प्रवास पूरो करवानो हतो, त्यां
वच्चे सहरानुं रण संप्राप्त थयुं. माथे घणो बोजो रह्यो हतो ते आत्मवीर्ये करी जेम
अल्पकाळे वेदी लेवाय तेम प्रघटना करतां पगे निकाचित उदयमान थाक ग्रहण कर्यो’
अहीं पर्यायनी नबळाईनुं ज्ञान पण वर्ते छे तेनी वात करी, तेमां पण आत्मवीर्यनी
वात साथे लीधी छे. अंतरमां सम्यक् एकांत एवा निजपद उपर द्रष्टि पडी छे, अने
स्वभाव तरफ पुरुषार्थनो वेग वळ्‌यो छे, पण स्वभावमां वळतां वळतां वच्चे वीर्य
अटकी गयुं, पूर्णताना पुरुषार्थमां न पहोंची शकायुं, एटले एकाद भव बाकी रह्यो, तेनुं
ज्ञान वर्ते छे; छतां स्वभावनी निःशंकता जाहेर करतां कहे छे के–
‘जे स्वरूप छे ते अन्यथा थतुं नथी; ए अद्भुत आश्चर्य छे, अव्याबाध
स्थिरता छे.’
अवस्थामां नबळाईथी जराक वीर्य अटक्युं छे तेनुं भान छे, पण द्रष्टिमां जे
स्वरूप आव्युं छे ते अन्यथा थवानुं नथी, ए स्वरूपनी द्रष्टि कदी खसवानी नथी. एटले
ए द्रष्टिना जोरे स्वरूपस्थिरता प्रगट करीने अल्पकाळे पूर्णदशा प्रगट करवाना छीए.
‘स्वात्मवृत्तांत’ मां निःशंकतापूर्वक कहे छे के–
अवश्य कर्मनो भोग जे भोगववो अवशेष रे,
तेथी देह एक ज धारीने जाशुं स्वरूप स्वदेश रे...धन्य रे.
हवे अनंतभव करवाना रह्या नथी, पण एक ज भव बाकी छे. एक भवमां
अमने पूर्णस्वरूपनी प्राप्ति थशे, एटले के अहींथी वच्चे स्वर्गनो भव करीने पछी
मनुष्य थईने पूर्ण स्वरूपने प्रगट करशुं–तेमां त्रणकाळ त्रणलोकमां शंका पडती नथी.
‘अपूर्व अवसर’ नी छेल्ली कडीमां पण आ संबंधमां लखे छे के–
एह परमपद प्राप्तिनुं कर्युं ध्यान मे, गजा वगर ने हाल मनोरथरूप जो.
तो पण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभु आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो.....
अंतरमां एवा परमात्मस्वभावनी श्रद्धा