: २४ : आत्मधर्म : आसो : २४९३
ए कल्याण विषेनो मोटो निश्चय छे. (वर्ष २६, ४७०)
४०. कोई पण जाणनार, क््यारे पण, कोई पण पदार्थने पोताना अविद्यमानपणे
जाणे, एम बनवा योग्य नथी. प्रथम पोतानुं विद्यमानपणुं घटे छे. (वर्ष २६ आंक
४३८)
४१. सर्व परमार्थना साधनमां परम साधन ते सत्संग छे, सत्पुरुषना
चरणसमीपनो निवास छे. (वर्ष २६, ४४९)
४२. जेने आत्मस्वरूप प्राप्त छे–प्रगट छे ते पुरुष विना बीजो कोई ते
आत्मस्वरूप यथार्थ कहेवा योग्य नथी, अने ते सत्पुरुषथी आत्मा जाण्या विना, बीजो
कोई कल्याणनो उपाय नथी. (वर्ष २६, ४४९)
४३. व्यवहार कर्यामां जीवने पोतानी महत्तादिनी ईच्छा होय ते व्यवहार करवो
यथायोग्य नथी. (वर्ष २६, ४४९)
४४. व्याधि रहित शरीर होय तेवा समयमां जीवे जो तेनाथी जुदापणुं जाणी,
तेनुं अनित्यादि स्वरूप जाणी ते प्रत्येथी मोहममत्वादि त्याग्या होय तो ते मोटुं श्रेय छे.
(वर्ष २६, ४६०)
४प. अविचार अने अज्ञान ए सर्व कलेशनुं मोहनुं अने माठी गतिनुं कारण
छे. सद्दविचार अने आत्मज्ञान ते आत्मगतिनुं कारण छे. (वर्ष २६, ४६०)
४६. महा व्याधिना उत्पत्ति काळे तो देहनुं ममत्व जीवे जरूर त्यागी ज्ञानी
पुरुषोना मार्गनी विचारणाए वर्तवुं, ए रूडो उपाय छे. (वर्ष २६, ४६०)
४७. पूर्वकाळमां जे जे ज्ञानी पुरुषना प्रसंगो व्यतीत थया छे ते काळ धन्य छे,
ते क्षेत्र अत्यंत धन्य छे. ते श्रवणने, श्रवणना कर्ताने अने तेमां भक्तिभाववाळा
जीवोने त्रिकाळ दंडवत् छे. (वर्ष २६, ४६प)
४८. अत्यारे जीवमां मान होय ते पूर्वे थई गयेला ज्ञानी कहेवा आवे नहीं
परंतु हाल जे प्रत्यक्ष ज्ञानी बिराजमान होय ते ज दोषने जणावी कढावी शके. जेम
दूरना क्षीरसमुद्रथी अत्रेना तृषातुरनी तृषा छीपे नहीं पण एक मीठा पाणीनो कळशो
अत्रे होय तो तेथी तृषा छीपे. (वर्ष २६, ४६६)
४९. ज्ञानी पुरुषे कहेवुं बाकी नथी राख्युं पण जीवे करवुं बाकी राख्युं छे. (वर्ष
२६, ४६६)
प०. ‘आत्मा छे’ जेम घटपटादि पदार्थो छे तेम आत्मा पण छे. अमुक गुण
होवाने लीधे जेम घटपटादि होवानुं प्रमाण छे, तेम