Atmadharma magazine - Ank 288
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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* खरेखरो ज्ञायकवीर *
(संतोए अंतरमां श्रुतज्ञानना साद पाडीने केवळज्ञानने बोलाव्युं छे.)
चैतन्यसाधनाना पंथे चडेला साधकने जगतनी कोई
प्रतिकूळता डगावी शकती नथी के मुंझवी शकती नथी. निज–
आत्माने द्रष्टिमां लईने तेमां लीनता वडे जेणे शांतदशा प्रगट करी,
तेनी शांतिने जगतना महासंवर्तक–वायरा पण डगावी शके नहीं.
अत्यारे पंचमकाळनी प्रतिकूळताना घणा प्रसंगो होवाथी तेना
समाधान माटे बहु अटकवुं पडे छे एटले अत्यारे आत्मानी साधना
थई शकती नथी,– आम कोई कहे तो कहे छे के अरे भाई! एवुं
नथी; अत्यारे पण प्रतिकूळताना गंज वच्चेय आत्मानी पवित्र
आराधनावाळा ने जातिस्मरणज्ञानवाळा आत्माओ अहीं नजरे
देखाय छे; जगतनी कोई प्रतिकूळता एमने आराधनामां नडती
नथी. अंतर्मुख थईने चैतन्यगूफामां जे प्रवेशी गया तेमने
चैतन्यगूफामां वळी प्रतिकूळता केवी? कोई प्रतिकूळताना भार नथी
के चैतन्यनी अंदर प्रवेशी शके. चैतन्यसिंहनी शूरवीरता सामे
प्रतिकूळता तो न टके, परभावो पण न टकी शके.–
“बहिरभावो ते स्पर्शे नहीं आत्मने,
खरेखरो ए ज्ञायकवीर गणाय जो.”
चैतन्यसिंह ज्ञायकवीर पोताना पराक्रमनी वीरताथी ज्यां
जाग्यो त्यां तेनी पर्यायना विकासने कोई रोकी शके नहीं. अहो,
सन्तोए आत्मशक्तिनां आवा रहस्यो खोलीने गजब काम कर्या
छे...ने मुमुक्षु जीवो उपर महा उपकार कर्यो छे. एमणे तो अंतरमां
श्रुतज्ञानना साद पाडीने केवळज्ञानने बोलाव्युं छे, श्रुतज्ञानमां
केवळज्ञाननो निर्णय आवी जाय छे. केवळज्ञाननो निर्णय न होय
तो ते श्रुतज्ञान ज साचुं नथी. ज्यां पोताना सर्वज्ञस्वभावमां
स्वसन्मुख थतुं श्रुतज्ञान जाग्युं त्यां सर्वज्ञपद प्रगट्या वगर रहे
नहि. आवा स्वभावने जाणतां जीवने सम्यग्दर्शन थाय ने
स्वसन्मुख थईने ते वेलोवेलो मोक्षमां जाय.