Atmadharma magazine - Ank 289
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : कारतक : २४९४
ज्ञानीनुं ज्ञान मोक्षने साधे छे– मारी आत्मपर्यायने मारा आत्मद्रव्यनी साथे ज तन्मयता
छे–एम देखनार जीवनी स्वपर्यायनो झुकाव पोताना द्रव्यस्वभाव तरफ होय छे, एटले
स्वद्रव्य तरफना झुकावथी तेने वीतरागता ज थती जाय छे. राग–द्वेषादि भावो तेने घटता
जाय छे; ने ते घटता जता रागादिभावनुंय ज्ञानमां तो अकर्तापणुं ज छे; केमके ते रागनी
साथे तन्मय थईने ज्ञान उपजतुं नथी. ज्ञान तो शुद्धआत्मा साथे ज तन्मय थईने उपजे छे.
आ रीते ज्ञातास्वभावना आश्रये रागना अकर्तापणे उपजतुं ज्ञानीनुं ज्ञान मोक्षने साधे छे.
जीवनुं साचुं जीवन– जेणे जीवनी शुद्ध चैतन्यसत्तानो स्वीकार न कर्यो ने बीजा वडे तेनुं
जीवन (तेनुं टकवुं) मान्युं तेणे जीवना स्वाधीन जीवनने हणी नांख्युं, पोते ज पोतानुं
भावमरण कर्यु. तेने अनंत शक्तिवाळुं स्वाधीन जीवन बतावीने ‘अनेकान्त’ वडे
आचार्यदेव साचुं जीवन आपे छे. ‘भावमरणो’ टाळवा माटे करुणा करीने अनंत
आत्मशक्तिरूपी संजीवनी संतोए आपी छे, –जेना वडे अविनाशी सिद्धपद पमाय छे. –ए
जीवनुं साचुं जीवन छे, ते सुखी जीवन.
सिद्धभगवंतो सुखी जीवन जीवी रह्या छे; तेना साधक–संतो पण सुखी जीवन जीवी रह्या छे.
चैतन्यसतानी अनुभूति आत्माने सुखी जीवन जीवाडे छे.
आनंदने अनुभवनारा जीवो– आनंदमय ज्ञाता–द्रष्टापरिणामी आत्मा ते खरो आत्मा छे.
एकला ज्ञानभावथी भरेलो आत्मा तेने जाणतां आनंदमय अमृतरसनी धारा वहे छे.
रागादिना कर्तापणे आत्माने जाणे तेमां तो रागनुं–आकुळतानुं वेदन थाय छे. तेमां आनंदनी
धारा वहेती नथी, केमके ते आत्मानुं साचुं स्वरूप नथी. आत्माना साचा स्वरूपने जाणे ने
आनंदरसनी धारा न वहे–एम बने नहि. अंदर आनंदनो दरियो भर्यो छे एटले तेमां
उपयोग जोडतां ज आनंदनी धारा अनुभवमां उल्लसे छे. वस्तुस्वरूप एवुं छे के एना
ज्ञानमां कदी कंटाळो न आवे पण आनंद आवे. भाई, तारी आवी वस्तु छे तेने एकवार
तारा लक्षमां तो ले;एने लक्षमां लेतां ज, कदी न थयेलो एवो आनंद तने थशे. सम्यग्दर्शन
सहित नरकना संयोग वच्चे रहेला श्रेणीकराजा पण आवा आत्माने आनंदभाव सहित
अनुभवे छे. एनो तो दाखलो आप्यो, बाकी अहीं पण एवा आत्मानो आनंदसहित
अनुभव करनारा अनेक जीवो छे, ने एवो अनुभव थई शके छे.